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________________ विशुद्ध आत्मा अकर्ता है। आत्मा का कर्तृत्व प्रकृति के संयोग से है। निश्चयनय से अकर्ता में कर्मपुद्गलों के निमित्त कर्तृत्वभाव को जैनदर्शन में भी स्वीकार किया गया है, जो आचार्य कुन्दकुन्द के दृष्टिकोण से अत्यधिक निकट है। सभी भारतीय–दार्शनिकों की तरह जैन-दार्शनिकों ने भी आत्मा को अपने कृत कर्मों के फलों का भोक्ता माना है। जैनदार्शनिक आत्मा को मात्र उपचार से कर्मफलों का भोक्ता न मानकर, वास्तविक रूप से भोक्ता मानते हैं। नित्य-आत्मवादः भारतीय-दर्शनों में चार्वाकदर्शन आत्मा की नित्यता एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त को नहीं मानता है। बौद्धदर्शन भी नित्यआत्मवाद को नहीं मानता है, परन्तु पुनर्जन्म को स्वीकार करता है। शेष सभी भारतीय दर्शन आत्मवादी ही हैं और पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं। उपनिषद्, वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसक आदि आत्मा की नित्यता को मानते हैं। आत्मा अनादि एवं शाश्वत है। ईसाई और इस्लाम धर्म पुनर्जन्म नहीं मानते, फिर भी मृत्यु के उपरांत शुभाशुभ कर्मों का फल मानते हैं। जैन-दार्शनिकों ने आत्मा को अपेक्षा–भेद से देहव्यापी एवं सर्वव्यापी माना है। आत्मा नित्य ज्ञानमय है। यहां तक कि संसारी आत्मा को देह–परिणाम ही माना है। जैनदर्शन में आत्मा का स्वलक्षण उपयोग कहा गया है। यह उपयोग दो प्रकार का है१. ज्ञानोपयोग २. दर्शनोपयोग वस्तु या ज्ञेय को जानने-रूप प्रवृत्ति को ही उपयोग बताया गया है। भगवतीसूत्र में कहा गया है “उवओग लक्खणे णं जीवे।" 78/ध्यान दर्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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