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चेतन कभी भी अपनी चैतन्य अवस्था का त्याग नहीं करता है, यह जिनेश्वर देव का वचन है। जैनदर्शन में आत्मा को परिणामी-नित्य कहा गया है, अथात् आत्मा नित्य होते हुए भी परिवर्तनशील है, अर्थात् उसकी उपयोग या ज्ञानरूप पर्यायों में परिणमन होता रहता है। जैन-दार्शनिकों के अनुसार आत्मा का यह परिणमन तीन प्रकार का है
१. ज्ञान-चेतना २. कर्म-चेतना (संकल्प) ३. कर्मफल-चेतना (सुख-दुःखरूप अनुभूति)
शुद्धस्वभाव में परिणाम करने वाली चेतना ज्ञानचेतना है, जबकि रागादि भावों में परिणमन करने वाली चेतना कर्मचेतना है
और सुख-दुःखादि का अनुभव करने वाली चेतना कर्मफल-चेतना है।
आधुनिक मनोविज्ञान में भी चेतना के तीन रूप माने गए
१. Knowing (जानना) २. Willing (इच्छा करना) ३. Feeling (अनुभव करना)
मनोविज्ञान की शब्दावली में इन्हें- १. ज्ञान २. संकल्प ३. अनुभूति कहा जाता है।
समयसार नाटक में बनारसीदासजी ने कहा है कि ज्ञानचेतना मुक्तिबीज है और कर्मचेतना संसार का बीज है। तीनों चेतनाओं में ज्ञानचेतना को परमात्मा, कर्मफलचेतना को अन्तरात्मा और कर्मचेतना को बहिरात्मा का विशेष लक्षण कहा जाता है।
जैन-दार्शनिकों ने आत्मा को शुभ-अशुभ कर्मों या द्रव्य-कर्म एवं भावकर्म का कर्ता स्वीकार किया है। न्यायवैशेषिक, मीमांसा
76/ध्यान दर्पण
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