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अर्थात् जो विज्ञाता है, वही आत्मा है, जो आत्मा है, वही विज्ञाता है। आत्मा को परिभाषित करते हुए अभिधान-राजेन्द्रकोश में कहा गया है- “अतति इति आत्मा', जो गमन करती है, वही आत्मा है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जो सर्व विचार-विकल्पों से शून्य है, वही आत्मतत्त्व या समयसार है। वह केवलज्ञान और केवलदर्शन से युक्त, अर्थात् विशुद्ध ज्ञाता–दृष्टा स्वभाववाली है। चैतन्यता के साथ-साथ आत्मा विवेकशील तब भी है। चार्वाक कहता है कि आत्मा जड़ है। कई दार्शनिक उसे शून्य कहते हैं।
आत्मा के अस्तित्व के प्रति संशय स्वयं ही आत्मा की सत्ता को सिद्ध करता है, क्योंकि संशयकर्ता के बिना संशय संभव नहीं है और जो संदेह या संशय का कर्ता है, वही तो आत्मा है। जैन-दर्शन के अनुसार सुख, दुःखादि आत्मा के कारण ही होते हैं।
ब्रह्मसूत्रभाष्य में आचार्य शंकर भी कहते हैं कि जो निरसन कर रहा है, वही तो उसका स्वरूप है। इस प्रकार, आचार्य शंकर भी आत्मा के अस्तित्व के लिए स्वत:बोध को स्वीकार करते हैं।
पाश्चात्य दार्शनिक डेकार्ट भी संशय के आधार पर आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। उनका कहना है कि किसी भी सत्ता के अस्तित्व में सन्देह किया जा सकता है, किन्तु सन्देहकर्ता के अस्तित्व में सन्देह करना असम्भव है। डेकार्ट कहते हैं- “मैं सन्देहकर्ता हूँ, अत: मैं हूँ।'' इस प्रकार डेकार्ट ने भी आत्मा के अस्तित्व को स्वत:सिद्ध माना है। ___जैनदर्शन के समान गीता भी आत्मा को नित्य-द्रव्य के रूप में स्वीकार करती है। उसमें आत्मा के सम्बन्ध में जैनदर्शन के समान ही कहा गया है। चार्वाकदर्शन के अनुसार देह नष्ट होते ही आत्मा भी सदा के लिए नष्ट हो जाती है।
74/ध्यान दर्पण
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