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प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश और आनन्दमयकोशऐसे पाँच स्तरों का विवेचन उपलब्ध होता है। उपनिषदों में आत्मा को देह से विलक्षण, मन से भी भिन्न, विपु, व्यापक और अपरिणामी भी बताया गया है। उसे वचन से अगम्य कहते हुए नेति-नेति के द्वारा बताया गया है।
सांख्यदर्शन- सांख्यदर्शन में आत्मा को नित्य, निष्क्रिय, सर्वगत एवं चिद्स्वरूप, अमूर्त, चेतन, अकर्ता, भोक्ता, निर्गुण
और सूक्ष्म-रूप माना गया है। सांख्यदर्शन में आत्मा के लिए 'पुरुष' शब्द का प्रयोग हुआ है।
न्यायदर्शन- न्यायदर्शन में जीव शब्द के स्थान पर आत्मा शब्द मिलता है। ईर्ष्या, द्वेष, प्रत्यय, सुख, दुःख ज्ञानादि आत्मा के आगन्तुक लक्षण बताए गए हैं। ज्ञानादि को आत्मा का स्वभाव न मानकर उसका विभाव माना गया है।
वेदान्तदर्शन- आत्मा एक है, किन्तु शरीरादि उपधियों के कारण वह भिन्न प्रकार से दृष्टिगोचर होती है। यह दर्शन एकतत्त्ववादी है। ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् में निम्न प्रकार से बताया गया है- “एक एवं ही भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः।"
बौद्धदर्शन- बौद्धदर्शन को अनात्मवादी दर्शन कहा जाता है। आत्मा के अस्तित्व को वह वस्तुसत्य न मानकर केवल काल्पनिक संज्ञा मानता है। आत्मा पंच स्कन्धों का समूहमात्र है
और प्रतिक्षण परिवर्तनशील है, पर जैन दर्शन ने आत्मा को परिणामी-नित्य माना है। आत्मा अपने चैतन्य स्वरूप को अखण्ड रखती रहती है। प्रत्येक जीव की स्वतंत्र सत्ता है और विश्व में जीवों की संख्या अनन्त है।
आचारांगसूत्र में आत्मा के स्वरूप की चर्चा करते हुए कहा गया है- “जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया",
ध्यान दर्पण/73
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