________________
आत्मा-विषयक विभिन्न मत
जैन-दर्शन आत्मवादी दर्शन है, अत: उसमें आत्मा का महत्वपूर्ण स्थान है। आत्मा ही एक चेतन तत्त्व है। जैनग्रन्थों में आत्मा के लिए जीव, सत्व, प्राणी, भूत आदि पर्यायवाची शब्द भी उपलब्ध होते हैं। जैन-आगमों में आत्मा शब्द के स्थान पर प्रायः जीव शब्द का प्रयोग अधिक किया गया है। आत्मा और जीव शब्द जैनदर्शन में एक ही अर्थ में ग्रहीत हैं, जबकि अन्य दर्शनों में जीव और आत्मा में अन्तर किया जाता है। उपनिषदों में तो आत्मा को बह्म का पर्यायवाची माना गया है। ('अयं आत्मा ब्रह्मः', माण्डूक्य २) आचारांगसूत्र का प्रारंभ आत्मा की जिज्ञासा से ही होता है। उसमें कहा गया है कि कितने ही व्यक्तियों को यह ज्ञात नहीं होता है कि
" मैं कौन हूँ?" “ मैं कहाँ से आया हूँ?" इस प्रकार उसमें आत्मज्ञान को साधक-जीवन की प्राथमिक आवश्यकता बताया गया है। उसमें कहा गया है कि जो आत्मवादी होगा, वही लोकवादी अर्थात् संसार की सत्ता को माननेवाला होगा। अनात्मवादी बौद्धदर्शन में कूटस्थनित्य आत्मा का चाहे निषेध किया गया हो, किन्तु परिवर्तनशील चित्त की सत्ता को तो बौद्धाचार्यों ने भी स्वीकार किया है। आधुनिक विज्ञान भी चाहे नित्य और स्वतंत्र आत्मतत्त्व को स्वीकार न करता हो, फिर भी वह विश्व में जीवन और चेतन सत्ता के अस्तित्व को नकारता नहीं है।
उपनिषद्- आत्मा के विभिन्न स्तरों के उल्लेख हमें उपनिषदों में प्राप्त होते हैं। तैत्तरीयोपनिषद् में आत्मा के अन्नमयकोश,
72/ध्यान दर्पण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org