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एक व्यक्ति बहुत भूखा था, पर उसे कोई भी भिक्षा नहीं दे रहा था। उसने एक साधु को देखा, जिसे सभी लोग फल, मिठाई तथा खाना दे रहे थे। यह देखकर वह व्यक्ति भी साधु का वेश धारण करके पुनः नगर में पहुँचा। अब उसे भरपेट खाना मिला, पर उसका यह कार्य गलत था, क्योंकि साधु बनकर सिर्फ पेट भरना उसका ध्येय था ।
घर माही मिलतो नहीं, खावण पूरो भेख लियो भगवानरो, करवा लाग्यो घर में अनाज नहीं, इस कारण ली हुई दीक्षा या साधुत्व से आध्यात्मिक - उन्नति का मार्ग नहीं हो सकता ।
इस दुनिया में बहुत-से लोग सिर्फ शरीर का रोग दूर करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। इसके लिए वे कितना ही समय और पैसा खर्च कर देते हैं, परंतु आत्मा का रोग दूर करने के लिए उनके पास समय नहीं है। देखिए, एक बेबस आत्मा क्या कह रहा है
शीशमहल में बैठा आतमा, जाने क्या सोचा करता, कोई ढूँढे पागल मुझको, राह देखा करता ।
कोई न आता, हाल न पूछता था, समय बीत गया कई जन्मों का ॥
अनाज ।
राज ||
आज हमें सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। देह है, जो कि स्वस्थ है, तन्दुरुस्त है। सारे आगम, शास्त्र हमारा इंतजार कर रहे हैं। समय है, मन्दिर हैं, संत हैं। नहीं है, तो सिर्फ हमारी रुचि । सत्संग बहुत आवश्यक है।
मीराबाई को संत रैदास ने मार्ग दिखाया । कृष्ण की मूर्ति लेकर नाचने वाली मीरा को पूर्णानुभूति उनके गुरु के कारण हुई। खुद को जान । तू कौन है? कहाँ से आया है? तेरा स्वरूप क्या है ? तेरे जीवन का उद्देश्य क्या है ? इसका जरा पता तो कर ।
68 / ध्यान दर्पण
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