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के पैर छूकर अपनी सीट पर बैठ रहे थे। मुझे वह देखकर कुछ अचंभा हुआ। बाबा का कहना है कि हम सभी समान हैं। कोई भी उच्च, नीच नहीं है। आत्मा निरंकारी है। वह इस शरीर में रहती है। इस कारण शरीर भी पवित्र है। आत्मा इस शरीर से भिन्न है, पर वह इसी शरीर में रहती है। यह बात निरंकारी आश्रम में बताई जाती है। जैन धर्म भी यह बात दोहराता है
देहदेवल में रहे, पर देह से जो भिन्न है।
है राग, किन्तु उस राग से भी अन्य है।
देह और आत्मा तो भिन्न-भिन्न हैं, पर हमारे अंदर जो राग-द्वेष आदि विकार हैं, उनसे भी आत्मा अन्य है। आत्मा शुद्ध है, जैसे एक आईना, जिसमें अनेक चेहरे दिखते हुए भी वह स्वच्छ, साफ होता है, पर यह समझने के लिए ज्ञान की साधना जरूरी है, वह भी आत्मज्ञान की।
एक बार एक देहाती अपनी पत्नी के लिए दर्पण लाता है। देहाती को बहुत भूख लगी थी, इस कारण वह हाथ-पैर धोने के लिए बाहर की तरफ जाता है। पत्नी बड़ी बेताबी से उस दर्पण को देखती है, पर उसमें कोई परायी स्त्री देखकर चिल्लाती है"मेरा पति सौतन लेकर आया है।'' वह रोना-धोना करके रसोईघर में खाना परोसने के लिए जाती है। इतने में उसकी सास भी अपना चेहरा दर्पण में देखकर चिल्लाती है- “अरे मूर्ख! दूसरी सौतन लाना ही थी, तो जवान ही लाता। मेरे समान बूढ़ी क्यों लाया?"
कितना अज्ञान है? अज्ञानता के कारण हम गलत मार्ग पर चलते हैं, गलत ख्वाब देखते हैं। आध्यात्मिक-जगत् में जाने के लिए भावशुद्धि बहुत महत्त्वपूर्ण है। आलोचना, पश्चाताप के
आंसू तथा प्रायश्चित्त हमारी गलतियों से कुछ हद तक राहत दे सकते हैं। तीन बातें महत्वपूर्ण हैं- लक्ष्य, क्रिया और निष्पत्ति।
___ ध्यान दर्पण/67
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