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________________ हाथ में चादर सौंप दी। चादर देते ही संन्यासी बिना कपड़ों के ठण्ड से ठिठुरने लगा। चोर लज्जित हुए और वहाँ से निकल गए। इस तरह कुछ दिन बीते। एक बार वे चोर चोरी करते हुए पकड़े गए। राजा ने उन्हें राजदरबार में बुलाया। उनके पास संन्यासी की चादर देख संन्यासी को भी बुलाया गया। संन्यासी ने अपनी जुबानी कहा- “राजन् ! ये चादर मैंने ही इन्हें दी है। इन्होंने इसे चोरी नहीं की। इन्हें छोड़ दें।" संन्यासी की बात सच जानकर चोरों को छोड़ दिया गया। चोर सीधे संन्यासी की कुटिया में पहुँचे और उनसे क्षमा मांगी। संन्यासी बोला- “आप यहाँ वापस आएँगे, यह तो मैं जानता था, क्योंकि इस चादर में लिपटी हुई है, मेरी बरसों की साधना, मंत्रों की शक्ति तथा ध्यान का प्रभाव, इसी कारण यह चादर मैंने आपको दी थी।" साधु-संत हमें किसी ना किसी तरह से जगाते ही रहते हैं। क्या हम जागेंगे ? अपराधी तो हम खुद हैं, जो अपने आतमराम को भूल गए। एक महानिद्रा में हम सोए हैं। अपराधी तो मैं ही हूँ, जो मैंने मेरा स्वरूप नहीं जाना । संत रामदास स्वामी कहते हैं कि भक्तिमार्ग में तीन प्रचिती आवश्यक हैं- १) गुरुप्रचिती २) शास्त्रप्रचिती ३) आत्मप्रचिती । प्रथम, भगवान् को जानकर फिर उसे भजें। हजारों लोगों में से एक ही परमार्थ का मार्ग अपनाता है। ऐसे हजारों में से एक ही स्वरूप की तरफ चलता है और उन हजारों में से एक ही अपने मूल स्वरूप को प्राप्त करता है । भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैंनहि ज्ञानेन सदृश्यम् पवित्र मिह विद्यते । ज्ञान के समान पवित्र कोई भी वस्तु नहीं है। कल मैं निरंकारी बाबा के आश्रम में गई थी । वहाँ पर करीब दो सौ लोग थे । एक गुरु उच्च आसन पर बैठे थे। सभी लोग प्रथम उनके पैर छूकर बाद में अपने आसपास बैठे लोगों 66 / ध्यान दर्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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