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का अन्त करके उन्होंने आत्मा की अमरता व अस्तित्व का झण्डा फहराया। धन्य है वह सुकरात!
सन्तों की बात ही कुछ निराली होती है। वे अपनी हर कृति से आत्मा का अस्तित्व जाहिर करते हैं। सिकंदर राजा ने जब युद्ध में विजय प्राप्त कर ली और स्वदेश वापस लौटने लगा, तो उसे अपने गुरु के ये शब्द याद आए कि भारत से कोई सन्त जरूर साथ लाना। वह संत की तलाश करते-करते एक जंगल में पहुँचा। वहाँ ‘दण्डमित्र' नाम का एक साधु बैठा हुआ था। सेनापति ने उसे साथ चलने को कहा पर साधु नहीं गया। यह देखकर खुद सिकंदर वहाँ पहुचा और बोला- “चलो, हमारे साथ, अन्यथा तुम्हारा सिर काट दिया जाएगा।'' साधु हँसा
और बोला- “जब यह कार्य आप करेंगे, तो मैं भी आपके समान मेरा सिर शरीर से जुदा होते हुए देखूगा।'' यह जवाब सुन सिकंदर बिना संत के अपने देश लौट गया। अपनी बात रखने के लिए साधु-संतों ने अपनी जान तक कुर्बान की है। इसके उदाहरण हैं- एक संत को हाथी के सामने खड़ा कर मरवाया गया था। इसी प्रकार मन्सूर को, यीशू को लोगों ने जिंदा ही मार दिया था।
पुराने समय में ध्यान की परम्परा थी। जैन-दर्शन के प्रमुख आगम 'आचारांग' में महावीर की ध्यान-साधना का उल्लेख है, परंतु मध्य युग में मंत्र-तंत्र का प्रभाव बढ़ा। जैन ध्यान-पद्धति में आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान का उल्लेख है, उसी प्रकार पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान का भी उल्लेख है। अनेक ग्रंथों में इनका विवेचन किया गया है।
जैनधर्म में आत्मा नित्य परिणमनशील है। वेदान्त आत्मा को कूटस्थनित्य मानता है। बौद्धधर्म आत्मा को अनित्य मानता है। संत रामकृष्ण ने भक्तियोग से समाधि की प्राप्ति की, तो
64/ध्यान दर्पण
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