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रुकता और न पूछता, क्योंकि वे सब देखते थे कि जिस डिब्बी में वह पारस पत्थर रखा था, वह डिब्बी अभी तक लोहे की ही थी, सोने की नहीं हुई थी। एक दिन एक जिज्ञासु व्यक्ति साधु के पास आया और बोला- “महाराज, अगर, यह पारस है तो फिर यह डिब्बी काली और लोहे की क्यों है?'' साधु को बड़ी खुशी हुई कि कोई जिज्ञासु इस दुनिया में अभी भी है। साधु ने डिब्बी को खोलकर दिखाया कि डिब्बी के अंदर जो पारस है, वह कागज में लपेटा हुआ है। पारस और लोहे के बीच एक परदा है, जो लोहे को सोना होने से रोक रहा है। परदा हटाते ही लोहा सोना हो गया। उसी प्रकार, जब तक आत्मा के ऊपर कर्मो के आवरण और अज्ञानता का असर है, तब तक आत्मदर्शन असंभव है। आवरण हटते ही वह सुवर्ण बनेगा। साधु ने निवेदन किया'बिन देखे यह मन नहि माने। बिन मन माने प्यार नहीं। बिना प्यार दे भगति नहीं। बिन भगति प्रभु ध्यान नहीं।। ___आत्मा की अमरता, नित्यता, ध्रुवता समझाने के लिए अनेक साधु-संतों ने अपने प्राण तक अर्पण किए। इसका एक सर्वोत्तम उदाहरण है, गुरु सुकरात का। एक दिन उन्होंने अपने शिष्य को आज्ञा दी कि वह उसे विष पिलाए, परंतु शिष्य हिचकिचाने लगा। गुरु ने कहा- “तुम लोगों के मन में आत्मा के बारे में जो शंका है, उसका मैं निरसन करना चाहता हूँ।' बड़ी हिम्मत से शिष्य ने गुरु सुकरात को विष दिया। विष का प्राशन करते ही सुकरात के होश उड़ने लगे, फिर भी हर पल वे कहने लगे- “अब मेरा हाथ सुन्न हुआ, पर मैं जीवित हूँ। मेरे पैर में, पेट में अभी तक चैतन्यता है। अब मेरा पैर भी अचेतन सा हुआ, फिर भी आत्मा तो है।'' इस प्रकार मरते दम तक सुकरात आत्मा और शरीर की भिन्नता प्रकट करते रहे और अपने शरीर
ध्यान दर्पण/63
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