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कार्य, बलराम भाई आप ही करें।'' तात्पर्य, राग का यह मार्ग प्यारा लगता है, पर वीतरागी मार्ग कठिन है। ज्ञान का यह मार्ग श्रीकृष्ण या बलराम के संकेतमात्र से नहीं मिलता है। उसके लिए स्वयं पुरुषार्थ करना पड़ता है, वरना महावीर के समवशरण से हम खाली हाथ न आते।
सामान्य जनता अपने दैनंदिन जीवन में इतनी मस्त और व्यस्त होती है कि उसे पता नहीं चलता की दुनिया में और भी
अधिक सुखकारी जगह है। एक भ्रम की दुनिया में वह इस तरह रहता है, जैसे
ऐसे भ्रमाचे लक्षण। विसरे आपणा आप। ___ नाही काही कळे त्यासी। अपुलेच सुंदर रूप।। हर कोई कहता है, हम तो दररोज मंदिर जाते हैं, पूजा भी दो-तीन घंटे कर ही लेते हैं, स्वाध्याय और तीर्थ यात्रा तो हमारी दिनचर्या है और क्या करें? मानव ने अनेक देवताओं की प्रतिमाएँ निर्माण कर दी, परंतु भगवान् ने जो जो मार्ग बताया, उसका पालन करते हैं क्या? भगवान् ने स्व का शोधन और संशोधन किया। क्या वे हमारे आदर्श नहीं हैं? अगर हैं, तो उनके पथ पर हमें नि:शंक होकर चलना चाहिए। समर्थ रामदास कहते हैंनाना देवांच्या नाना प्रतिमा। लोक पूजिती धरून प्रेमा। ज्याच्या प्रतिमा तो परमात्मा । कैसा आहे।।
__ ऐसे ओळखिले पाहिजे । एक साधु था। वह एक छोटे से गांव के बाहर रहता था। उसके पास एक पारस पत्थर था। वह गांव के लोगों को कहता था- “देखो, देखो! मेरे पास यह अनमोल पत्थर है जो कि लोहे को सोना बनाता है।'' यह सुनकर भी उसके पास न तो कोई
62/ध्यान दर्पण
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