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________________ ऊपर छलांग मार रहा है। भगवान् का प्रसाद भी इधर-उधर उड़ा रहा है। यह देखकर भक्त अचंभित हुआ। उसी क्षण उसकी शंकर भगवान् पर की हुई अटल श्रध्दा, भक्ति समाप्त हो गई। उसे यह समझ में नही आया कि जो भगवान् सबकी रक्षा कर सकता है, वह खुद की रक्षा करने में असमर्थ क्यों है? क्या ऐसा भगवान् कभी सर्वश्रेष्ठ और बलवान् हो सकता है? इन सभी प्रश्नों ने उसे मंदिर और मूर्ति से दूर कर दिया। बाद में उसी ने स्वामी दयानंद के रूप में आर्य समाज की स्थापना की। परमात्मा मंदिर या मूर्ति में नहीं, तीर्थ में नहीं, वह तो हमारे अंदर है। शंकराचार्य कहते हैं अजं निर्विकल्पं निराकार एकम्। परं निर्गुणं निर्विशेषं निरीहम्।। अर्थात्, यह ब्रह्म, यह परमेश्वर अजन्मा है, अपरिवर्तनशील है, निराकार है। आज आदमी चाँद पैर रखने का ध्येय करता है, पर स्वयं से अनभिज्ञ है। आज का यह युग धोखेबाजी, अनैतिकता और असत्य का रूप है। मन में प्रश्न आता है कि इस तरह वातावरण इतना मलीन होने के बाद क्या आत्मज्ञान संभव है? हे मानव! तू उसकी चिंता मत कर। तु सिर्फ अपना पुरुषार्थ कर, फिर आत्मा तेरे करीब और सामने होगी। यह डंके की चोट के साथ लेखिका कहती है- आज अनेक विद्वान्, पंडित समाज में हैं, परंतु वे सिर्फ गाथा याद करने से, तर्क या वाद करने से मोक्षरूपी साध्य प्राप्त नही होता। नाना शास्त्रे पहेत् लोको । नाना दैवतं पूजनम्। आत्मज्ञानविण पार्था । सर्व कर्म निरर्थकम् ॥ हमें आस्था की जरूरत है, ज्ञान की आवश्यकता है। ___ध्यान दर्पण/55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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