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________________ हाऊस भी है, सिर्फ कनेक्शन करना शेष है। बस, ब्रह्म की प्राप्ति भ्रम की समाप्ति है। भगवद्गीता में कहाँ है कि जो इस शरीर में रहता है, उसको न आप मार सकते हो, न चीर सकते हो, वह अमर है। मेरा शरीर और मेरी आत्मा- दोनों भिन्न हैं। यह जानना ही प्रथम सीढ़ी है। आत्मा इस शरीर में कैद है, सिर्फ कुछ समय के लिए। महासागर के पानी की एक बूंद उतनी ही महान् है, जितना की महासागर, क्योंकि दोनों में एकसमान गुण हैं। हमारा यह शरीर पंचमहाभूतों से बना हुआ है। मरने की बात सभी करते हैं, पर वह कला हर कोई नहीं जानता । मरना मरना सब कोई कहे। मरनो न जाने कोय। कबीरदास यही कहते हैं। आदि शंकराचार्य कहते हैं कि भोजन बनाने का प्रत्यक्ष कारण अग्नि है, उसी प्रकार ज्ञान (आत्मा का)- यह मुक्ति का कारण है। जब भी कोई साधक ईश्वर-प्राप्ति के लिए निकलता है, तब वह मूर्ति पूजा से प्रारंभ करता है, परंतु आगे चलते-चलते उसके ध्यान में आता है कि मूर्ति ईश्वर नहीं हो सकती, क्योंकि भगवान् तो अविनाशी, निर्विकारी हैं। मूर्ति का प्रयोजन तो मूर्त से अमूर्त की तरफ जाने के लिए है, पर वास्तविकता में हम देखते हैं कि अधिक-से-अधिक लोग मूर्ति में सीमित रहते हैं। इससे आगे बढ़ने का उन्हें संकल्प नहीं होता है। वे वहीं संतोष मानते रहते हैं। शंकर भगवान् का एक भक्त, शंकर के पिंड के पास मंदिर में ही सोता था। एक दिन वह मंदिर में सोया हुआ था। वह गहरी नींद में था। उसने शोरगुल सुना, जिसके कारण वह जाग गया। आँखें खोलकर देखता है कि एक चूहा शंकर भगवान् के पिंड के 54/ध्यान दर्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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