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नौकर फिर से पूछता है- “मालिक! और क्या लेकर आऊँ?" मालिक कहता है- "मेरा अति महँगा गलीचा लेकर आ।" नौकर दौड़कर जाता है और गलीचा लेकर घर के बाहर आता है। फिर नौकर को याद आता है कि उसे कहीं पर भी छोटे मालिक दिखाई नहीं दिए हैं। सेठ को जब वह यह बात बताता है, तो सेठ के होश उड़ जाते हैं। वे सिर पर हाथ रखकर नीचे बैठ जाते हैं, हाय! हाय! करते हैं और पछताते हैं कि सबसे मूल्यवान् वस्तु तो वे अंदर ही भूल गए। क्या हम भी उसी प्रकार अज्ञानी नहीं हैं?
जिस प्रकार “पानी' कहने से प्यास बुझती नहीं, उसी प्रकार गंगा नदी नक्षे में देखने से गंगा में नहाने का लाभ नहीं मिलता है। सिर्फ 'शुद्धोऽहं' कहने मात्र से आत्मा का दर्शन नहीं होता है।
हलवाई की दुकान पर एक आदमी पहुँचकर कागज पर '१००रु.' लिखकर हलवाई को देता है। वह पढ़कर दुकानदार भी एक कागज के टुकड़े पर १ किलो बर्फी' लिखकर दे देता है। क्या कोई व्यापार हुआ? कोई संबंध स्थापित हुआ? नहीं। उसी प्रकार, जब तक आत्मा का दर्शन नहीं होता, तब तक सिर्फ विवेचन, वाद-विवाद करना बेकार है।
बैठा पंडित पढ़े पुराण । बिन देखे का करे बखान। तू कहे कागज की लेखी । मैं कहूँ आँखन की देखी।
जिसने आत्मा को देखा है, वही सच्चे अर्थों में उसका बखान कर सकता है। संत तुकाराम, मीराबाई, गौतम बुद्ध, महावीर, समर्थ रामदास- इन सभी ने आत्मा का अनुभव करके सहर्षित होकर उसका वर्णन किया है, फिर भी हम जाग्रत नहीं हुए। अनेक बार महावीर भगवान् के समवशरण में जाकर हम खाली हाथ वापस आए। बल्ब तो मौजूद है, इलेक्ट्रिक-पावर
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ध्यान दर्पण/53
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