________________
जैन- दर्शन की साधना का आधार, केन्द्रबिन्दु है आत्मा । आत्मतत्त्व की अनुभूति, आत्मज्ञान व आत्मलीनता - यही इस साधना का मूलभूत लक्ष्य रहा है । स्वस्थिरता का नाम है- ध्यान। किसी भी एक वस्तु, विचार पर चित्त की स्थिरता का नाम है— ध्यान ।
आत्मा
यहाँ पर केवल चित्त का एकाग्र हो जाना ही अभीष्ट नहीं है, क्योंकि एकाग्रता प्रशस्त विषय पर भी हो सकती है एवं अप्रशस्त विषय पर भी । प्रशस्त विषयगत एकाग्रता धर्मध्यान कहलाती है। ध्यान चार प्रकार के होते हैं- आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ।
आज का युग बदला हुआ है, फिर भी ईश्वर की प्राप्ति के साधन वही हैं, इसमें कोई शक नहीं । पहिले भी हम पानी से ही अपनी प्यास बुझाते थे। आज भी हम पानी से ही अपनी प्यास बुझाते हैं। शरीर की प्यास बुझाने के लिए आदमी हर जगह दौड़ता है कि किसी जगह उसे पानी मिल जाए। वह तलाश करता है किसी कुएँ के लिए या फिर किसी नदी के लिए। आखिर, उद्देश्य तो प्यास बुझाने का ही होता है, परन्तु आत्मा की प्यास न लगने के कारण इस तलाश में बड़ी देर लगती है।
एक बार एक अमीर सेठ के घर आग लगी। सेठ भागते-भागते बाहर आया और चिल्लाने लगा- “अरे, कोई बचाओ !” एक नौकर आया और पूछने लगा आपके घर में से ऐसी कौनसी वस्तु सबसे पहले बाहर लाऊँ, जो मूल्यवान् हो ? सेठ बोला- “जा मेरी तिजोरी में रखे हीरे लेकर आ ।" सेठ के आदेश के अनुसार नौकर घर में घुसकर, आग से बचते-बचाते हीरे लेकर बाहर आता है । उसे देखकर सेठ जरा खुश होता है।
52/ ध्यान दर्पण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org