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है, वही स्त्री शरीर के या सुन्दर वस्तु के सौंदर्य को अपने ध्यान का आलम्बन बनाता है और उसके माध्यम से आर्तध्यान का भागीदार बनता है, किन्तु जो भोग के स्थान पर त्याग और वैराग्य को अपने जीवन का लक्ष्य बनाना चाहता है, जो समाधि का इच्छुक है, वह स्त्री-शरीर की विद्रुपता और नश्वरता का विचार करेगा, अतः ध्यान के प्रयोजन के आधार पर ध्येय का निर्धारण करना होता है। पुनः, ध्यान की प्रशस्तता
और अप्रशस्तता भी उसके ध्येय या आलम्बन पर आधारित होती है, अत: प्रशस्तध्यान के साधक अप्रशस्त विषयों को अपने ध्येय का आलम्बन या ध्येय नहीं बनाते हैं।
जैन-दार्शनिकों की दृष्टि में प्राथमिक स्तर पर ध्यान के लिए किसी ध्येय या आलम्बन पर ही चित्त की वृत्तियों को केन्द्रित करना सम्भव नहीं होता है। प्रशस्त आलम्बन ही व्यक्ति को प्रशस्तध्यान की दिशा की ओर ले जाता है। ध्यान के आलम्बन के प्रशस्त विषयों में परमात्मा या ईश्वर का स्थान सर्वोपरि माना गया है। जैन-दार्शनिकों ने भी ध्यान के आलम्बन के रूप में वीतराग परमात्मा को ध्येय के रूप में स्वीकार किया है। चाहे ध्यान पदस्थ हो या पिण्डस्थ, रूपस्थ हो या रूपातित, ध्येय तो परमात्मा ही है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जैनधर्म में आत्मा और परमात्मा भिन्न नहीं हैं। आत्मा की शुद्ध दशा ही परमात्मा है, इसलिए जैन-दर्शन में ध्याता और ध्येय अभिन्न हैं। साधक आत्मा ध्यानसाधना में अपने ही शुद्ध स्वरूप को ध्येय बनाती है। आत्मा, आत्मा के द्वारा आत्मा का ही ध्यान करती है। ध्यान में चित्त ही ध्येय का आकार ग्रहण करके हमारे सामने उपस्थित होता है। ध्यान वह कला है, जिसमें ध्याता अपने ही को ध्येय बनाकर स्वयं उसका साक्षी बनता है। हमारी वृत्तियाँ ही हमारे ध्यान का आलम्बन होती हैं और उनके माध्यम से हम
ध्यान दर्पण/49
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