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अपना ही दर्शन करते हैं, परन्तु अप्रशस्त ध्यानों की पात्रता सहज रूप से सभी प्राणी में होती है। नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, देव आदि सभी में आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान पाए जाते हैं, किन्तु जब ध्यान का विषय प्रशस्त हो, तो उसके लिए हमें प्रयत्न करने पड़ते हैं। धर्मध्यान और शुक्लध्यान के अधिकारी सभी प्राणी नहीं होते। उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में, किस ध्यान का कौन अधिकारी है- इसका उल्लेख किया है। साधारणतया चतुर्थ गुणस्थान, अर्थात् सम्यक्-दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् ही व्यक्ति धर्मध्यान का अधिकारी बनता है। जिस व्यक्ति को हेय, ज्ञेय और उपादेय का भेद समझ में आता है, वही धर्मध्यान कर सकता है, वरना वह चित्त को केन्द्रित नहीं कर सकता। धर्मध्यान की साधना के लिए व्यक्ति में ज्ञान के साथ-साथ वैराग्य भी आवश्यक माना गया है।
शुक्लध्यान- यह आठवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें अयोगी-केवली-गुणस्थान तक के जीवों में सम्भव है। इस प्रकार ध्यानसाधना के अधिकारी व्यक्ति भिन्न-भिन्न ध्यानों की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न कहे गए हैं। जो व्यक्ति आध्यात्मिक-दृष्टि से जितना विकसित होता है, वह ध्यान के क्षेत्र में उतना ही आगे बढ़ सकता है।
___ यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या गृहस्थ-जीवन में ध्यान संभव ही नहीं है। ज्ञानार्णव में प्रतिपादित है कि गृहस्थ प्रमाद में फंसा रहता है, इस कारण वह ध्यान का अधिकारी नहीं है। यह सत्य है कि जो व्यक्ति गृहस्थ-जीवन के प्रपंचों में उलझा हुआ है, उसके लिए ध्यान संभव नहीं है, किन्तु गृहस्थ-जीवन और गृही-वेश में रहनेवाले सभी व्यक्ति आसक्त ही होते हैं, यह नहीं कहा जा सकता, अत: व्यक्ति में मुनिवेश धारण करने से ही ध्यान की पात्रता नहीं आती है। प्रश्न यह
50/ध्यान दर्पण
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