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जाता है। बूंद भी अपने-आपको सागर का एक अंश ही नहीं, बल्कि सागर ही अनुभव करती है। 'बिन्दु में सिन्धु समाना'यह अवस्था समाधि की ही देन है। इस स्थिति में पहुँचकर साधक आनन्दमय कोश में पहुँच जाता है और तब उसे सिवाय आनन्द के और किसी चीज की अनुभूति नहीं होती । आनन्द घन का यह साक्षात्कार है। समाधि की उपमा चैतन्य सुषुप्ति से दी जा सकती है। जिस प्रकार खूब गहरी नींद से सोकर उठने के उपरान्त मनुष्य को आनन्द की अनुभूति होती है, चित्त प्रसन्न होता है, शरीर हल्का होता है, थकावट दूर होती है, बहुत कुछ वैसा ही अनुभव समाधि से उठने के पश्चात् साधक को होता है, लेकिन यह स्थिति केवल सतत अभ्यास एवं वैराग्य से ही प्राप्त हो सकती है । 'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः न मेघ या न बहुना श्रुतेन' - यह न तो प्रवचन से प्राप्त होती है, न मेघा के द्वारा और न पढ़ने-लिखने से । इस स्थिति में चेतना, सत्य तथा अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति मात्र होती है । वहाँ शान्ति की अनुभूति होती है, जो मेधा से परे होती है । मन उस अवस्था का वर्णन करने के लिए शब्दों को ढूंढने में समर्थ नहीं होता है और जिह्वा उन्हें उच्चारित करने में असमर्थ होती है। अन्य अनुभवों से समाधि के अनुभव की तुलना करते हुए संत कहते हैं"नेति ! नेति!!” यह अवस्था एकमात्र गहन शान्ति द्वारा प्रकट की जा सकती है। साधक पार्थिव - जगत् से चला जाता है और निद्रा में विलीन हो जाता है। उसके हृदय से एक व्यक्त आत्मसंगीत प्रवाहित होता है।
जैनाचार्यों ने ध्यान को चित्त-निरोध कहा है। किसी एक विषय में एकाग्रता ध्यान है। एकाग्रता अशुभ विचार में भी हो सकती है एवं शुभ में भी। इसी अपेक्षा से ध्यान चार प्रकार का बताया गया है — १ . आर्त्तध्यान २ रौद्रध्यान ३. धर्मध्यान ४.
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ध्यान दर्पण / 45
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