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शुक्लध्यान। आर्त्त एवं रौद्रध्यान दुर्ध्यान, प्रशस्त और अशुभ ध्यान हैं। इन दोनों से कर्म-निर्जरा नहीं, अपितु कर्मबन्धन होता है।
मोह का क्षय मोक्ष है। मोक्ष के मुक्ति, निर्वाण, परिनिर्वाण आदि पर्यायवाची हैं। मुक्ति शब्द 'मुंच' धातु से बना है। दोषों से विमुक्ति ही वास्तविक विमुक्ति है। असावधान साधक यदि शरीर
और इन्द्रियजनित सुखों की अभिलाषा से प्रेरित होकर शिष्य बनता है, दीक्षित होने के बाद पश्चाताप करता है कि उसने ऐसे कष्टों को क्यों अपनाया? तो वह दुःखों को ही आमन्त्रित करता है। नासाम्बरत्वे, न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्ववादे। न पक्षज्ञसेवाश्रयेण मुक्ति, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव।
न दिगंबरत्व से, न श्वेताम्बरत्व से, न तर्कवाद से, न तत्त्ववाद से और न किसी एक पक्ष की सेवा से मुक्ति होती है। वस्तुतः, कषाय-मुक्ति ही मुक्ति है।
कषाय बीज है, कर्म का। कर्म हेतु है, संसार-भ्रमण का। उत्तराध्ययन में कषाय को अग्नि कहा गया है। कषायाग्नि से दहकती आत्मा अशान्त होती है।
सुख और दुःख- दोनों अपनी-अपनी दृष्टि आधारित हैं। संसार में जितने जीव हैं, सभी को दुःख नहीं होता। कुछ जीव तो मस्ती में जीते हैं। उन्हें तो यह भी पता नहीं कि इस जगत् के सिवाय कोई अन्य जगत् भी है। बेचारे ऐसा ही जीवन जी लेते हैं, पर उन्हें उसकी खिन्नता नहीं होती।
46/ध्यान दर्पण
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