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तनाव
मनुष्य के पास दो शक्तियाँ हैं- ज्ञान की शक्ति और क्रिया की शक्ति। कुछ लोगों ने ज्ञान पर अधिक भार दिया और क्रिया को नकार दिया। कुछ लोगों ने क्रिया पर अधिक भार दिया और ज्ञान को नकार दिया। दोनों ही एकांगी दृष्टिकोण हैं। ज्ञान और क्रिया- दोनों मिलते हैं, तभी कोई पूरी बात बनती है।
आज तनाव की समस्या जटिल हो गई है। शारीरिक श्रम कम और मानसिक-प्रवृत्ति अधिक हो गई है, जो भावनात्मक प्रवृत्ति है। भावनाओं का प्रहार भयंकर होता है, क्योंकि इसमें
आदमी पर सीधा प्रहार होता है, इसलिए सम्यक् भाषा का विवेक जरूरी है। यह तनाव मिटाने का योग्य तरीका है।
सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य। सव्वस्स साधु धम्मस्सं, तहा झाणं विधीयते।।
जैसे मनुष्य के शरीर में उसका सिर महत्वपूर्ण है तथा वृक्ष में जड़ मुख्य है, वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है।
ध्यान की साधना के उपरांत मन केवल आत्मा या परमात्मा का ही निरन्तर चिन्तन-मनन करता है। इस स्थिति में पहुंचकर साधक अन्नमय कोश, प्राणमय कोश और मनोमय कोश से ऊपर उठकर विज्ञानमय कोश में पहुंचने की साधना करता है। जब ध्यानावस्था में ऐसी स्थिति आ जाए कि साधक के समक्ष केवल ध्येय ही ध्येय रह जाए, चित्त का स्वरूप जब शून्य के समान हो जाए, तब समाधि समझना चाहिए। इस स्थिति में शरीर का तो क्या, अपने पृथक् अस्तित्व का भी भान नहीं रहता। यहाँ अहम् का विलोप होकर, तत् त्वमसि', केवल तू ही तू रह जाता है। यहाँ साध्य और साधक का द्वैतभाव मिट
44/ध्यान दर्पण
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