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है, वह स्वयं अपने को जानना और अपने में जीना है। आत्मबोध से महत्वपूर्ण एवं श्रेष्ठतम अन्य कोई बोध है ही नहीं। आत्म-साक्षात्कार या आत्मज्ञान ही साधना का सारतत्त्व है। साधना का अर्थ है- अपने-आप के प्रति जागना। वह कोऽहं से सोऽहं तक की यात्रा है। साधना की इस यात्रा में अपने-आप के प्रति जागना होता है, ध्यान के द्वारा। ध्यान मे आत्मा, आत्मा के द्वारा आत्मा को जानता है। यह अपने आप के सम्मुख होता है। ध्यान में ज्ञाता अपनी ही वृत्तियों, भावनाओं, आवेगों और वासनाओं को ज्ञेय बनाकर वस्तुतः अपना ही दर्शन करता है। यद्यपि यह दर्शन तभी संभव होता है, जब हम इनका अतिक्रमण कर जाते हैं, अर्थात् इनके प्रति कर्त्ताभाव से मुक्त होकर साक्षी-भाव जगाते हैं। अतः, ध्यान आत्मा के दर्शन की कला है। ध्यान ही वह विधि है, जिसके द्वारा हम सीधे अपने ही सम्मुख होते हैं। इसे ही आत्म-साक्षात्कार कहते हैं। ध्यान, जीव में आत्मा से परमात्मा का दर्शन कराता है।
ध्यान में शरीर को स्थिर रखकर आंखें बन्द करना होती हैं। जैसे ही आंखें बंद होती हैं, व्यक्ति का सम्बन्ध बाह्य-जगत् से टूटकर अन्तर्जगत् से जुड़ता है। जब व्यक्ति संकल्प-विकल्पों का द्रष्टा बनता है, उसे एक ओर इनकी पर-निमित्तता का बोध होता है तथा दूसरी ओर अपने साक्षी-स्वरूप का बोध होता है। मन की भाग-दौड़ समाप्त हो जाती है।
जैनधर्म में ध्यान को मुक्ति का अन्यतम कारण माना जा सकता है। जैन-दार्शनिकों ने आध्यात्मिक विकास के जिन १४ गुणस्थानों (सीढ़ियों) का उल्लेख किया है, उनमें अन्तिम गुणस्थान अयोगी-केवली का है। अयोगी–केवली गुणस्थान की वह अवस्था है, जिसमें वीतराग-आत्मा अपने काययोग, वचनयोग, मनोयोग का अवलंबन लेकर मुक्ति प्राप्त कर लेती है। यह
40/ध्यान दर्पण
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