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प्रक्रिया सम्भव है, शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण व्युपरत क्रिया-निवृत्ति के द्वारा, अतः ध्यान मोक्ष का अन्यतम कारण है।
ज्ञानार्णव-शास्त्र में कहा गया है- मेरी आत्मा परमात्मा, परमात्म ज्योतिस्वरूप है। जगत् में श्रेष्ठ है, महान् है, तो भी मैं वर्तमान देखने मात्र रमणीक और अंत में नीरस- ऐसे इन्द्रियों के विषयों से ठगाया गया हूँ।
जैन–परम्परा में ध्यान आन्तरिक तप का एक प्रकार है। इस आन्तरिक-तप को आत्म-विशुद्धि का कारण माना गया है। योगदर्शन में ध्यान को समाधि का पूर्व चरण माना गया है। ध्यान जब अपनी पूर्णता पर पहुंचता है, तब वही समाधि बन जाता है। ध्यान की इस निर्विकल्प दशा को न केवल जैन-दर्शन में, अपितु संपूर्ण श्रमण-परम्परा में और न केवल सम्पूर्ण श्रमण-परम्परा में, अपितु सभी धर्मों की साधना-विधियों में मुक्ति का अंतिम उपाय माना गया है।
त्यागी चाहे चित्तवृत्तियों के निरोध-रूप में निर्विकल्प समाधि हो, या आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला हो, वह ध्यान ही है। ध्यान वस्तुत: चित्त की वह निष्प्रकम्प अवस्था है, जिसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप की साक्षी होती है।
चित्त की चंचलता अथवा मन की भागदौड़ को समाप्त करना ही जैन–साधना और योग-साधना- दोनों का लक्ष्य है। ध्यान और योग पर्यायवाची शब्द बन जाते हैं। वस्तुतः, जब चित्त-वृत्तियों की चंचलता समाप्त हो जाती है, चित्त निष्प्रकम्प हो जाता है, तो वही ध्यान होता है और वही समाधि होती है और योग उसे ही कहा जाता है, परन्तु जब कार्य-कारण भाव से विचार करते हैं, तो ध्यान साधन (कारण) होता है और समाधि साध्य (कार्य) होती है।
TRENESHREE
ध्यान दर्पण/41
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