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________________ > ध्यान आध्यात्मिकता का परम शिखर है । ध्यान साधना का प्रथम चरण व अंतिम सोपान भी है। शुरुआत होती है, बाहर की आँखें बन्द करने पर और अन्ततः उघड़ते हैं- नयन, जिन्हें हम प्रज्ञाचक्षु कहते हैं। जीवन की किन सीमाओं में जी रहे हैं हम ? जीवन को किस अभिनिवेश में देख रहे हैं हम? शायद हमें पता नहीं । पता भी हो, तो असहाय हैं । उस संकीर्णता से मुक्ति की ओर जाने के लिए जरूरी है कि उस असीम से कोई हमें बुलाए, उस अनन्त से कोई हमें पुकारे, उस अज्ञात से हमें कोई संकेत मिले। ऐसे ही एक बुलावे और पुकार को सुनकर अन्तस्थ सत्य की ओर गमन है— ध्यान, बर्हिगमन है- संसार, अन्तर्गमन हैमोक्षद्वार । जैनाचार्यों ने ध्यान को 'चित्तनिरोध' कहा है । चित्त का निरोध हो जाना ही ध्यान है। दूसरे शब्दों में, यह मन की चंचलता कम करने का अभ्यास है। गीता में मन की चंचलता के निरोध को वायु को रोकने के समान अति कठिन माना गया है। उसमें उसके निरोध के दो उपाय बताए गए हैं - १. अभ्यास २. वैराग्य | ध्यान में सर्वप्रथम मन को वासनारूपी विकल्पों से मोड़कर धर्म-चिन्तन में लगाया जाता है, फिर क्रमश: इस चिन्तन की प्रक्रिया को शिथिल बनाया जाता है । अन्त में, एक ऐसी स्थिति आ जाती है, जब मन पूर्णतः निष्क्रिय हो जाता है, उसकी भागदौड़ समाप्त हो जाती है। ऐसा मन, मन न रहकर 'अमन' हो जाता है। मन को 'अमन' बना देना ही ध्यान है । जिस प्रकार बांध पानी को एकत्रित कर उसे सबल और सुनियोजित करता है, उसी प्रकार ध्यान द्वारा सुनियोजित चेतनशक्ति का सम्यक् उपयोग सम्भव है। मनुष्य के लिए, जो कुछ भी श्रेष्ठतम और कल्याणकारी ध्यान दर्पण / 39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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