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विभिन्न मत प्रणाली
भारतवर्ष का गगन अनेक ऋषि-मुनियों से आलोकित है, जिसमें एक चमचमाता हुआ, तेजोमय सितारा है- “महर्षि रमण' जिन्होंने प्रकटमान् सत्यों में, अपने माने हुए अस्तित्व को, वास्तविक 'मैं' को पहचान लिया।
__ व्यक्ति हरदम स्वयं को शरीर मानकर ही अपनी आयु एवं अन्य व्यक्तियों के साथ स्थापित पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई बहन इत्यादि सम्बन्ध के रूप में स्वयं का परिचय देता है। शरीर में व्याधि उत्पन्न होने पर स्वयं को रोगी, शरीर में पीड़ा होने पर पीड़ित, आँखों से दिखाई नहीं देने पर अंधा, भूख लगने पर भूखा कहता है। यह सभी तत् वस्तुओं के साथ जुड़े हुए स्वयं के तादात्म्य को दर्शाता है और इसी तादात्म्य के कारण अपने अस्तित्व को भूलकर वह तत् वस्तुओं में अपना वास्तविक, परमार्थिक अस्तित्व मानता है, पर इस शरीर और अन्य वस्तुओं का ज्ञान रखने वाला 'मैं' इस शरीर से भिन्न है।
महर्षि रमण के अनुसार उपधियों का त्याग कर देने वाले पुरुष को आत्म-दर्शन होता है और यह आत्म–दर्शन ही ईश्वर-दर्शन है। अहम्-बुद्धि का त्याग कर 'मैं सच्चित्स्वरूप हूँ'- इस ज्ञान द्वारा स्वरूप में स्थित हो जाना ही आत्मदर्शन है, क्योंकि ये दो आत्माएँ नहीं हैं, जो एक-दूसरे को देखेंगी।आत्मा बुद्धि के ज्ञान का विषय नहीं बन सकती और जो स्वयं ज्ञान-स्वरूप है, उसे जानने के लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं है और न ही ऐसा प्रमाण उपलब्ध ही है।
अतः, आत्मज्ञान का अर्थ है- “मैं स्वयं चैतन्यमय हूँ, स्वयं प्रकाशस्वरूप हूँ।'' इस प्रकार, स्वरूप में स्थित हो जाना ही आत्मज्ञान है।
36/ध्यान दर्पण
HORESTLERAREXI
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