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अर्थ- हे ध्याता! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिन्तन कर । इस प्रकार योग का निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा, तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी। यह परम ध्यान है।
अन्नं इमं शरीरं, अन्नोऽहं बंधवावि मे अन्ने । एवं नाऊण खमं, कुसलस्स न तं खमं काऊं ? समणसुत्तं, १५ गा. ५१९ अर्थ- यह शरीर अन्य है, मै अन्य हूँ, बन्धु-बांधव भी मुझसे अन्य हैं, ऐसा जानकर कुशल व्यक्ति उनमें आसक्त न हो।
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मा चिठ्ठह मा जंपह मा चिन्तह किंवि जेन होइ थिरो । अप्पा अप्पम्म रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं ।
द्रव्यसंग्रह, ५६
अर्थ- हे भव्यों ! कुछ भी चेष्टा मत करो, कुछ भी मत बोलो, कुछ भी चिंतन मत करो, जिससे आत्मा निजात्मा में तल्लीन रूप से स्थिर हो जाए । यह आत्मा में लीनता ही परमध्यान है।
जह जाण कोवि पुरिसो परदव्वमिणं ति जाणिदुं चयदि । तह सव्वे परभावे णाऊण विमुञ्चदे णाणि ।
समयसार, गाथा ३५
अर्थ- जैसे लोक में कोई पुरुष परवस्तु को यह 'परवस्तु है - ऐसा जानकर परवस्तु का त्याग करता है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष समस्त परद्रव्यों के भावों को 'यह परभाव है' ऐसा जानकर छोड़ देता है ।
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ध्यान दर्पण / 35
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