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________________ ध्यान के मूल सूत्र देहविक्तिं पेच्छइ, अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे। देहोवहिवोसग्गं निस्संगो सव्वहा, कुणइ ।। - समणसुत्तं, १२ अर्थ- ध्यान-योगी अपनी आत्मा को शरीर तथा समस्त बाह्य-संयोगों से भिन्न देखता है, अर्थात् देह तथा उपधि का सर्वथा त्याग करके नि:संग होता है। णाहं होमि परेसिं, ण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे, से अप्पणं हवदि झादा। __- समणसुत्तं, १३ अर्थ- वही श्रमण आत्मा का ध्याता है, जो ध्यान में यह चिन्तन करता है कि 'मैं' न ‘पर' का हूँ, न 'पर' पदार्थ या भाव मेरे हैं, मैं तो एक ज्ञानमय हूँ। अवि झाइ से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं। उड्ढमहे तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिण्णे।। - समणसुत्तं, ६ अर्थ- भगवान् उत्कुटासन आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे। वे ऊँचे-नीचे और तिरछे लोक में होने वाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे। उनकी दृष्टि आत्मा-समाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प-मुक्त थे। मा चिठ्ठह मा जंपह, मा चिन्तह किं पि जेण होई थिरो। अप्पा अप्पाम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।। - समणसुत्तं, १८ 34/ध्यान दर्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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