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ध्यान क्या है ?
वर्त्तमान पर्याय के प्रति अनासक्त होकर जो जीवन का सुखद अनुभव होता है, उसका नाम ध्यान है ।
जे अणण्णदंसी, से अणण्णारामे,
जे अणण्णारामे से अणण्णदंसी ।
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जो अन्य नहीं है— ऐसा निज अस्तित्व ही सचमुच में अनन्य आत्मा का सद्भाव है । उसे जो देखता है, वही परमार्थ से उस अनन्य आत्मा के अस्तित्व में रमण करता है । जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है। प्रथम आत्मा को देखना ही सम्यक्दर्शन है, उसे जानना ही सम्यक्ज्ञान है, उसमें रमण करना ही सम्यक्चारित्र है ।
संपिक्खए अप्पगमप्पएणं
आत्मा से आत्मा को देखो। प्रेक्षाध्यान का यह मुख्य वाक्य है । विश्व का प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति किसी-न-1 - किसी रूप में आसक्ति के परिणाम वाला पाया जाता है। वह आसक्ति ही उसके दुःख का हेतु है । जब वह आसक्तिरूप विभाव-परिणाम और अनासक्तिरूप ज्ञान- परिणाम- इन दोनों को भिन्न-भिन्न रूप से जान लेता है, देख लेता है, तब से आसक्ति का विभाव- परिणाम विसर्जित होने लगता है। अब उसे आसक्ति कर्म-रूप नहीं रही, ज्ञेयरूप हो गई है, इसलिए जैसे-जैसे देखना और जानना बलवान् होता है, वैसे-वैसे सारे कर्म–संस्कार क्षीण होते जाते हैं, उनके क्षीण होने से आत्मा सदा ही सबको एक साथ देखने–जानने की क्षमता रखती है। इस हेतु से तीर्थंकर महावीर की साधना-पद्धति में देखना- जानना सर्वश्रेष्ठ
32/ ध्यान दर्पण
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