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चाहिए; कमर, पीठ, ग्रीवा और मस्तिष्क एक सीधी रेखा में हों, दोनों कंधे और हाथ झुके हुए तथा समग्र अवयव शिथिल हों । इस प्रकार शिथिलिकरण शरीर को तनावमुक्त कर मन के एकीकरण हेतु प्रारंभिक भूमिका तैयार करता है, जिससे मन के स्व- समाहित होने में सहयोग मिलता है, अतः शरीर की और से ध्यान को पूर्णतः हटाने हेतु शरीर का तनावरहित, पीड़ारहित होना आवश्यक है। इसी उद्देश्य को लेकर ध्यान के पूर्व शरीर को पूर्णतः शिथिल कर दिया जाता है, जैसे भगवान् महावीर करते थे। आचार्य हेमचन्द्र भी यही कहते हैं कि आसानी से बैठ सकें, वैसे ही आसन का चुनाव करें। साढ़े बारह वर्ष के साधनाकाल में ४५१५ दिनों में उन्होंने केवल ३४१ दिन ही आहार लिया। महावीर आत्म- ध्यान में इतने लीन हो गए कि शरीर की अनुभूति और भूख-प्यास ही नहीं रही। एक बार तो वे निरन्तर छह महीने तक बिना आहार व पानी के रहे।
आहार के सम्बन्ध में महावीर ने अनेक प्रयोग किए, उनमें से एक प्रयोग था, आठ महीने तक रूक्ष आहार ग्रहण करने का । उस समय उन्होंने पानी भी अल्पमात्रा में लिया। रूक्ष आहार व अल्पमात्रा में पानी लेने से तथा आतापना ग्रहण से तेजस् - शरीर का विकास होता है, साथ ही वीर्य भी सूखकर ओजरूप में परिणत होता है । जितना हम रसयुक्त भोजन करते हैं, जल का अधिक उपयोग करते हैं, देह में उतनी ही आर्द्रता आती है। जितना आहार अल्प व रूक्ष होगा, निद्रा भी उतनी ही कम होगी। आचारांग में लिखा है- भगवान् बहुत अल्प निमेष - उन्मेषमात्र निद्रा लेकर फिर जाग्रत हो जाते थे । भगवान् प्रायः मौन ही रहते थे। किसी के पूछने पर न पूछने पर भी वे नहीं बोलते थे। मौन जीवन की बहुत बड़ी शक्ति होती है । भगवान् ने एकान्त स्थान पर साधना की, जैसे- १. खण्डहर २. सभा ३ प्याऊ ४.
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30 / ध्यान दर्पण
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