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________________ नासाग्रन्यस्तनयन: प्रलम्बित भुजद्वयः । प्रभुः प्रतिमया तत्र तस्थौ स्थाणुरिव स्थिरः ।। अर्थात्, नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि को स्थिर कर, दोनों हाथों को लम्बे किए हुए भगवान् स्थाणु की तरह ध्यान में अवस्थित हुए। ध्यान, यह जागरण और निद्रा- दोनों से अलग तीसरी अवस्था है। वह निद्रा के समान शिथिल है, तो जागरण के समान चेतन, अर्थात् निद्रा के समय जो शिथिलता होती है, वैसी ही शिथिलता ध्यान के समय होना चाहिए तथा जागरण के समय जो चेतनता होती है, वैसी ही चेतनता ध्यान के समय भी होना चाहिए । इस तरह ध्यान में नींद की शिथिलता व जागरण की चेतनता का सहज समन्वय है और इस समन्वय हेतु अति उपयोगी है- नासाग्रदृष्टि । सम्भवतः, इसी तथ्य को लेकर महावीर ने नासाग्रदृष्टि का अभ्यास किया, साथ ही ध्यान के समय वे अपने शरीर को शिथिल रखते थे। दोनों लम्बे किए हुए हाथ, सटे हुए पाँव और थोड़ा आगे की ओर झुका हुआ मस्तिष्क । पुव्वाभिमुहो उत्तरमुहो व होउण सुइ- समायारो । झाया समाहिजुत्तो, सहासणत्यो सुइसरिरो ।। अर्थ- पूर्व या उत्तर दिशाभिमुख होकर बैठने वाला, शुद्ध आचार तथा पवित्र शरीर वाला ध्याता सुखासन में स्थित हो समाधि में लीन होता है। शरीर का शिथिलिकरण तनावमुक्त मन की निहित आवश्यकता है। ध्यान के समय शरीर ऐसे शिथिल होना चाहिए, जैसे खूंटी पर टंगा हुआ कुर्ता । खूंटी पर कुर्ता टंगने पर मध्य में वह बिल्कुल सीधा रहता है तथा आस-पास से पूरा झुक जाता है, वैसे ही ध्यान - साधना में मध्य के रज्जु को सीधा रखना Jain Education International For Private & Personal Use Only ध्यान दर्पण / 29 www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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