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________________ स्वाध्याय के पश्चात् ध्यान और ध्यान के पश्चात् स्वाध्याय, इस प्रकार स्वाध्याय और ध्यान की पुनरावृत्ति से परमात्मस्वरूप उपलब्ध होता है। यह परंपरा बहुत पुरानी है । महावीर भगवान् उत्कट आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे । वे ऊँचे-नीचे और तिरछे लोक में होने वाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे। उनकी दृष्टि आत्मसमाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प - मुक्त थे । हे ध्याता ! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिन्तन कर, इस प्रकार त्रियोग का निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा, तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी, यही परमध्यान है । जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पुरुष कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से बाधित नहीं होता । ध्यान की छोटी-सी चिनगारी असंख्यात कर्मों को जलाने में समर्थ है। ध्यान के साथ-साथ परम ज्ञान आवश्यक है। विकल्पों को सहज भाव से रोकना ध्यान है। हम जीवन की किन सीमाओं में जी रहे हैं, जीवन को किस संकीर्ण झरोखे से झांककर देख रहे हैं, शायद हमें पता नहीं । पता भी हो, तो असहाय हैं । उस मुक्ति की ओर जाने के लिए जरूरी है, उस महावीर भगवान् के दिए हुए संकेत का पालन करना । उनके इस प्रयोगात्मक, साधनामय जीवन का केन्द्रबिन्दु, उनकी साधना का मूल आधार था - 'ध्यान' । ध्यान एवं कायोत्सर्ग के संगम ने उनके व्यक्तित्व को निखारा। अंतर को पखारा, वीतरागता की परम ऊँचाइयों का उन्होंने स्पर्श किया। उनकी ध्यान-साधना सावलम्ब और निरावलम्ब- दोनों प्रकार की रहीं । 28/ ध्यान दर्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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