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रहकर बैठे और अंतरंग में संकल्प-विकल्पों का जाल बिछा हो, तो वह ध्यान नहीं है, योग भी नहीं है। जैसे
एक छोटी सुई है, धागा कुछ मोटा है। उस धागे को सुई में पिरोना है। यदि हाथ हिल जाए, तो धागा पिरोया नहीं जा सकता। बहीखाता लिखने वाला थोड़ी चंचलता से हिसाब में गलती कर सकता है।
ध्यान के बिना रोटी जलती है। मन से स्थिर होकर सुई के छिद्र की ओर एकाग्र हो जाएंगे, तभी धागा पिरोया जा सकेगा, लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी। इसी प्रकार, ध्यान करते समय 'मेरी आत्मा चैतन्य-स्वरूप है, यह शेष रहे और बाकी सब छूट जाए, ऐसी भावना हो', तभी लक्ष्य की ओर अग्रसर होंगे।
झाणछिओ हु जोई, जइणो संवेय णिययअप्पाणं।
तो ण लहइ तं सुद्धं, भग्गविहीणो जहा रयणां।। अर्थ- ध्यान में स्थित योगी यदि अपनी आत्मा का संवदेन नहीं करता, तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता; जैसे कि भाग्यहीन व्यक्ति रत्न प्राप्त नहीं कर सकता।
वही श्रमण आत्मा का ध्याता है, जो ध्यान में चिन्तन करता है कि मैं न 'पर' का हूँ, न 'पर' पदार्थ या भाव मेरे हैं, मैं तो एक शुद्ध-बुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूँ। ध्यान करनेवाला साधक पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातित- इन चारों अवस्थाओं की भावना करे। पिंडस्थ-ध्यान का विषय है- केवलित्व, अर्थात् कैवल्य-स्वरूप का अनुचिंतन। रूपातित ध्यान का विषय हैशुद्ध आत्मा।
हे भव्य! तुझे अन्य व्यर्थ ही कोलाहल करने से क्या लाभ है ? तू इस कोलाहाल से विरक्त हो और एक चैतन्यमात्र वस्तु को स्वयं निश्चल, लीन होकर देख। ऐसा छह मास अभ्यास
ध्यान दर्पण/25
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