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अविच्छिन रूप में स्थितिशीलता ध्यान है, या ध्येय वस्तु में चित्त का एकतान होना ध्यान है। सीधी भाषा में मन का एक विषय पर स्थिर हो जाना ध्यान है। पतंजलि ध्यान का अर्थ करते हुए कहते हैं कि "योगश्चित्तवृत्ति निरोध", अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाना ध्यान - योग है। इसका अर्थ मन को शून्य बना देना, मन को गतिहीन बना देना है। ध्यान में ध्येय के साथ अविच्छिन्न संबंध हो जाता है ।
संस्कृत की एक धातु है - 'ध्यै चिन्तायाम् ।' ध्यान शब्द इससे उत्पन्न हुआ है और इस धातु के अनुसार ध्यान शब्द का अर्थ होता है— चिन्तन । चिन्तन का एक प्रवाह चंचलता की ओर जाता है, जबकि ध्यान का प्रवाह स्थिरता की ओर जाता है। इसी आधार पर तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने कहा- “ एकाग्र चिन्ता निरोध ध्यानम्", अर्थात् एक आलम्बन पर चिंतन को रोके रखना ध्यान है ।
संसार की अनेक वस्तुएँ मनुष्य के सामने होती हैं, किन्तु वह उन सबका निरीक्षण नहीं कर पाता है, वह एक समय में एक ही वस्तु का निरीक्षण कर सकता है।
विज्ञान में ध्यान (Attention) को अवधान कहा है। मस्तिष्क के अंदर एक शक्ति है, जो किसी भी वस्तु का निरीक्षण कर उस पर विचारशक्ति को केंद्रित कर देती है। यह स्थिर प्रक्रिया ध्यान-केन्द्र में होती है। इस स्थैर्य का नाम ध्यान है।
मन, वचन, काय की एकाग्रता योग है। आत्मा में एकाग्रता ध्यान है। आत्मतत्त्व की प्राप्ति न हो, तो अध्ययन चाहे कितना भी हो, सब व्यर्थ है। जब तक विकल्पों से मुक्त होकर ध्यानमग्न नहीं हों, तब तक कर्म-बंध ही होता है ।
पद्मपुराण में लिखा है कि केवल आँखें बंद कर, मौन
24/ ध्यान दर्पण
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