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ध्यान और ज्ञान
ध्यान ज्ञान की ही एक अवस्था है।
"व्यग्र चित्तं ज्ञानं एकाग्रचित्तं ध्यानं । "
मन की जो चंचल वृत्ति है, वह ज्ञान है और स्थिर वृत्ति ध्यान है। ध्यानशतक में इस आशय को स्पष्ट किया गया है।
"जं थिरमज्झवसाणं झाणं तं चलं - तयं चित्तं । "
जो स्थिर चैतन्य है, वह ध्यान है और जो चल चैतन्य है, वह चित्त है। बर्फ को जल से भिन्न नहीं कहा जाता है। जब पानी तरल अवस्था में होता है, तब जल कहलाता है। वही घनीभूत होकर बर्फ कहलाता है। ज्ञान और ध्यान की यही स्थिति है। स्वाध्याय ध्यान का मूल है। इससे ध्यान के विषय में सहायता मिलती है। जिसका आत्मविचार स्पष्ट नहीं है, जिसे आत्मा का स्वरूप पता नहीं है और जिसे आत्मा और शरीर के भेद - ज्ञान का बोध नहीं है, वह ध्यान की उत्कृष्ट भूमिकाओं में कैसे प्रवेश कर सकेगा ? इसलिए ध्यान के मूल के रूप में स्वाध्याय का महत्व है। दीपक हवा में रखा है, उस समय उसकी लौ बहुत चंचल होती है। उसे कमरे के भीतर निर्वात- प्रदेश में रख देने पर उसकी लौ स्थिर, शांत हो जाती है। तेल या घी के समाप्त होने पर दीपक बुझ जाता है, लौ समाप्त हो जाती है। दीपक की पहली अवस्था चंचल है, दूसरी स्थिर और तीसरी अवस्था निरुद्ध है। इसी तरह ज्ञान की तुलना हवा में रखे हुए दीपक से की जा सकती है।
पतंजलि ने ध्यान का लक्षण बताते हुए लिखा है- जहाँ चित्त को लगाया जाए, उसी में चैत्तसिक वृत्ति की एकाग्रता,
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ध्यान दर्पण / 23
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