________________
कर और देख कि ऐसा करने से अपने हृदय-सरोवर में जिसका तेज-प्रताप प्रकाश-पुद्गल से भिन्न है- ऐसी उस आत्मा की प्राप्ति होती है या नहीं ? ____ यदि अपने स्वरूप का अभ्यास करें, तो उसकी प्राप्ति अवश्य होती है, यदि परवस्तु हो, तो उसकी प्राप्ति तो नहीं होती। अपना स्वरूप तो विद्यमान है, किन्तु वह पहचाना नहीं जा रहा है, यदि सावधान होकर देखें, तो वह अपने निकट ही है। यहाँ छह मास के अभ्यास की बात कही गई है, इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि इतना ही समय लगेगा। उसकी प्राप्ति तो अंतर्मुहूर्त मात्र में ही हो सकती है, परन्तु यदि शिष्य को बहुत कठिन मालूम होता हो, तो उसका निषेध किया गया है। यदि समझने में अधिक काल लगे, तो छह मास से अधिक नहीं लगेगा, इसलिए यहाँ यह उपदेश दिया गया है कि अन्य निष्प्रयोजन कोलाहल का त्याग करके इसमें लग जाने से शीघ्र ही स्वरूप की प्राप्ति हो जाएगी।
___ जैसे कालिमा से भिन्न स्वर्ण है, दही से भिन्न शकर है, पलंग से भिन्न उस पर सोने वाला व्यक्ति है, उसी प्रकार मोहादि समस्त संयोग से तथा कर्मादि समस्त विभावों से भिन्न ज्ञायक स्वभावी आत्मा का सब प्रकार के कोलाहल को छोड़कर अनुभव करने का छह मास अभ्यास करने वाले को आत्मा के स्वरूप की अवश्य प्राप्ति होगी। अपना आत्मस्वरूप तो सदा विद्यमान है। उसकी प्राप्ति तो अंतर्मुहूर्त में ही हो सकती है।
प्रथम तो श्रुतज्ञान के अवलंबन से अपने ज्ञान स्वभाव के अस्तित्व का निश्चय करें। फिर, आत्मा की प्रत्यक्ष प्रकटरूप प्राप्ति के लिए ऐसी सर्व इन्द्रियों तथा मन के माध्यम से प्रवर्त्तमान बुद्धियों को समेटकर मतिज्ञान को आत्मा के सम्मुख करें तथा अनेक प्रकार के नय पक्षों के अवलंबन से होने वाली
26/ध्यान दर्पण
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org