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________________ जाने की क्षमता प्राप्त कर सकता है। आत्मा-परमात्मा इंद्रियातीत तत्त्व हैं। हालांकि तर्क एवं बुद्धि से उसका अस्तित्व सिद्ध है, फिर भी वह इन्द्रियों से प्रत्यक्ष में अनुभव न किया जाए, ऐसा तत्त्व है। इसका अनुभव करने के लिए इन्द्रियातीत शक्ति और सामर्थ्य का होना आवश्यक है। इसका साक्षात्कार होने के बाद मानव अपने-आप को दु:खी, पीड़ित और अशान्त नहीं समझता। कष्ट, अशांति और पीड़ा उसे स्पर्श तक नहीं करतीं। अतीन्द्रिय पदार्थों का निर्णय करने में आज तक दिग्गज पंडित और बुद्धिमान् सफल नहीं हुए हैं। शास्त्र और विद्वान् तो मात्र दीप-स्तम्भ हैं, अत: सिर्फ उनसे जुड़े रहने से कार्य सिद्ध नहीं होता। उनके मार्गदर्शन में हमें अपना मार्ग खोजना है। केषां न कल्पनादेवी शास्त्रक्षीरान्नगाहिनी। विरलास्तद्रसास्वादविदो ऽअनुभवजिव्हायाः।। अर्थ- किसी की कल्पना शास्त्ररूपी खीर में प्रवेश नहीं कर सकती, लेकिन अनुभवरूपी जीभ से शास्त्रस्वाद को जानने वाले विरले ही होते हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ज्ञानसागर में कहते हैं- “तार्किक बुद्धि से शास्त्रों को उलटते-पुलटते रहोगे, उससे कोई शास्त्रज्ञान का रसास्वाद अनुभव नहीं कर सकोगे। इतना ही नहीं, बल्कि शास्त्रों की तार्किकता के पलड़े में तोलने में ही जीवन पूर्ण हो गया, तो अंतिम समय में खेद होगा कि सचमुच मैं दुर्भागी अभागा हूँ कि कभी मेहनत कर खीर पकायी, लेकिन उसका स्वाद लूटने का मौका ही न मिला।'' जिस तरह समस्त विश्व इन्द्रियातीत नहीं है, ठीक उसी तरह सकल विश्व इन्द्रियों द्वारा नहीं जाना जा सकता। विश्व से 20/ध्यान दर्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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