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________________ ऐसा जानकर उस वस्तु का त्याग करता है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष समस्त परद्रव्यों के भावों को 'यह परभाव है'- ऐसा जानकर छोड़ देता है । जिस प्रकार दूध में घी अव्यक्त होता है, शक्तिरूप में विद्यमान है, उसी प्रकार आत्मा में शुद्धि होने की शक्ति विद्यमान है । उस शक्ति को पुरुषार्थ के बल पर व्यक्त करना होगा, तभी हम सच्चे मनुष्य कहलाएंगे। उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र के दसवें अध्याय में मोक्ष के स्वरूप का वर्णन किया है। नौवें अध्याय में मुक्त अवस्था कैसे प्राप्त होगी, यह बताया है। जो जीव परपदार्थों का त्याग कर देते हैं और राग-द्वेष को हटाते हैं, वे संसार - सागर से ऊपर उठकर अपने स्वभाव में स्थित होते हैं । दूध में जो घी है- शक्तिरूप विद्यमान है, वह हाथ डालकर निकाला नहीं जा सकता। दूध का मंथन किया जाता है और मंथन के उपरांत भी नवनीत का गोला प्राप्त होता है, जो कि छाछ के अन्दर ही तैरता है । उस नवनीत को तपाकर घी बनाया जाता है, तब वह तैरता है, क्योंकि अब वह शुद्ध हुआ है । जितनी मात्रा में परिग्रह को कम करेंगे, शरीर के प्रति मोह को कम करेंगे, आपका जीवन उतना ही निर्मल होता जाएगा और अपने वास्तविक स्वभाव को प्राप्त करता जाएगा । हम लोगों में भी कुछ घी जैसे, तो कोई नवनीत के रूप में या दूध के रूप में हैं। अब संस्कार होंगे, तब हल्के बनेंगे। आत्मा का स्वभाव उर्ध्वगमन है । उमास्वाति आचार्य ने कहा है- 'बहु- आरंभ और बहु -- परिग्रह रखनेवाला ‘नरकगति' का पात्र होता है । बहुत पुरुषार्थ से यह जीव मनुष्य-जीवन पाता है, लेकिन पुनः परपदार्थों में मूर्च्छा, रागद्वेषादि करके नरकगति की ओर चला जाता है। पुरुष का पुरुषार्थ उसे नरक की ओर भी ले जा सकता है और यदि वह चाहे, तो मोक्ष - पुरुषार्थ के माध्यम से लोक के अग्रभाग तक Jain Education International For Private & Personal Use Only ध्यान दर्पण / 19 www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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