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आओ, मैं तुम्हें इसका उत्तर कल दूंगा।' दूसरे दिन राजा ने उसके हाथ में दीपक दिया और कहा- “इस दीपक के प्रकाश में तुम्हें पूरे नगर का चक्कर लगाना है, पर याद रहे, ये चारों तलवारधारी तुम्हारे चारों ओर हैं। रास्ते में न दीपक बुझे, न तेल की एक बूंद गिरे। यदि दीपक बुझा, तो तुम्हारे जीवन का दीपक बुझेगा और तेल गिरा, तो तुम्हारी गर्दन भी नीचे गिर जाएगी।" बड़ी सावधानी से वह व्यक्ति चक्कर लगाकर आया। राजा ने पूछा- “क्या देखा, नगर में?'' उसने कहा- “दीपक और तलवार के सिवा कुछ भी नहीं देखा।'' चक्रवर्ती ने कहा“यही है मेरे जीवन का राज। तुम्हें ये भोग और विलास दिखते हैं, लेकिन मुझे तो अपनी मौत की तलवार दिखती है।''
आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानात् अन्यत् करोति किं। परभावस्य कर्ताऽऽत्मा। मोहोऽयं व्यवहारिणाम्।।
कोई भी कार्य अपने-आप नहीं होता। सोचो, जब बंधन अपने-आप नहीं होता, तो मुक्ति कैसे अपने-आप हो जाएगी। चोर जब चोरी करता है, तब जेल जाता है। इसी प्रकार, यह आत्मा जब राग-द्वेष करती है, तभी उनसे बंधती है। जेल को बनानेवाला और तोड़नेवाला- दोनों कैदी ही हैं।
प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, स्वतंत्र होना चाहता है, किन्तु स्वतंत्रता के मार्ग को अपनाना नहीं चाहता। बैठे-बैठे आजादी प्राप्त नहीं होगी। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की सत्ता से मुक्त होना चाहता है, तो उसे पुरुषार्थ करना पड़ता है। हमें भी स्वतंत्रता के लिए पुरुषार्थ करना पड़ेगा। जह णाम कोंवि पुरिसो परदव्वमिणं ति जाणिदुं चयदि। तह सव्वे परभावे णाऊण विमुचदे णाणी।। अर्थ- जैसे लोक में कोई पुरुष परवस्तु को ‘यह पर वस्तु है'
18/ध्यान दर्पण
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