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अगर हम धर्म का सहारा लेंगे, तो पावन होंगे।
एक दिन पिता और पुत्र घूमने जा रहे थे। पिता को दर्शनशास्त्र का अभ्यास था। अपने पुत्र से पिता कहते हैं
"चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।।"
इसका अर्थ है- दो पाटन के बीच जो दाना है, वह बच नहीं सकता, वह पिसकर ही निकलता है। यह बात सुनकर पुत्र कहता है
"चलती चक्की देखकर, दिया कमाल ठिठोय। जो कीली से लग रहे, मार सके नहि कोय।"
यह कोई नियम नहीं कि संसार के सारे प्राणी दुःख का ही अनुभव करते रहें, या संसार के सारे प्राणी जन्म-मरण के बीच पिसते रहें। जिसने भी धर्मरूपी कील का सहारा ले लिया है, जिसका जीवन ही धर्म बन गया है, उसे संसार में कोई नहीं अटका सकता है या पिसा सकता है।
असंयमी का जीवन हमेशा कष्टदायक ही रहता है, जैसे गर्मी के दिनों में छाया सुख देती है, पर छाया न हो, तो कोई धर्मवचन भी अच्छा न लगे। ध्यान रहे, असंयमी को देवगति में सुख के सागर में भी संक्लेश सहन करना पड़ता है। 'विषय–चाह दावानल दह्यो, मरत विलाप करत दुःख सह्यो।'
संसार में जो सुख मिला है, वह आत्मा द्वारा किए हुए उज्ज्वल और शुभ परिणामों द्वारा है और जो दुःख मिला है, वह अशुभ भावों द्वारा है। सुकमाल मुनि की कथा प्रसिद्ध है। जब वे छोटे थे, तब उनकी माँ ने उन्हें कभी कष्ट नहीं होने दिया। उनका बिस्तर अति मुलायम था। उनके लिए खाने में कमल-पत्रों पर रखे हुए चावल पकाए जाते थे। उनकी अनेक पत्नियाँ थीं।
ध्यान दर्पण/15
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