________________
पद्धति हो गई। उपवास स्थूल शरीर करता है, कष्ट भी स्थूल शरीर को होता है और शोधन कर्म - शरीर में होता है। दोनों में एक संबंध है।
मैंने तो अनेक साधु, विद्वान् और पंडित इसी दशा में देखे हैं, जिन्होंने आगम का सखोल अभ्यास किया है। हर गाथा उन्हें याद है । जिंदगीभर दूसरों को उपदेश देते रहे, सिखाते रहे, परन्तु खुद उसका मर्म नहीं जान पाए । कितनी खोखली दशा है ये ! जिसके लिए जीवन समर्पित, उससे ही अनभिज्ञ ।
सुख और दुःख- दोनों अपनी-अपनी दृष्टि आधारित हैं। संसार में जितने भी जीव हैं, सभी को दुःख नहीं होता है। कुछ जीव तो अत्यन्त भोग-विलास में जीते हैं। उन्हें तो यह भी पता नहीं की इस बाह्य - जगत् के सिवा भी कोई जगत् है । बेचारे ऐसे ही जीवन जी लेते हैं, पर उन्हें उसकी खिन्नता नहीं होती। कोई बताए, इस अध्यात्म - जगत् के बारे में, तो उन्हें श्रद्धा नहीं होती है । ऐसे जीव सुना-अनसुना कर फिर से उसी संसार के चक्र में फँस जाते हैं।
जेल में देखो, जो कैदी है, जिसने अपराध किया है, जो न्यायनीति से विमुख हुआ है, वही दुःख पाता है, किन्तु वहाँ रहने वाला जेलर इस दुःख से बेखबर है। बंधन और दुःख कैदी के लिए हैं, जेलर के लिए नहीं । इसका अर्थ यही हुआ कि सुख और दुःख का अनुभव करने के पश्चात् व्यक्ति के भावों की भूमिका बनती है । समयसार में आचार्य कुंदकुंद कहते हैं कि कर्मों का उदयमात्र बंध का कारण नहीं है, किन्तु अपने अंदर विद्यमान राग-द्वेष के भाव हैं। वस्तु या पदार्थ बंध के लिए कारण नहीं, परन्तु हमारा लगाव या मोह ही बंध का कारण है। संसार में रहना तो पाप है, अपराध है, परन्तु संसार में लीन होकर रहना महा अपराध है। इससे बचने के अनेक उपाय हैं।
14/ ध्यान दर्पण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org