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________________ वे सब उनका बहुत ख्याल रखती थीं। उन्हें रत्नदीपक का प्रकाश मिलता था, क्योंकि सूरज तथा दीपक की रोशनी उनकी आँखों में चुभती थी। एक दिन मुनि के आगमन से उनका जीवन बदल जाता है और वे स्वयं सुकोमल होते हुए भी मुनि बने। अपने घर से बिना कुछ कहे निकल पड़े। सब कुछ संभव होता है, जब आत्मा में ज्ञान और वैराग्य का दीपक प्रज्ज्वलित होता है। मुनि होने के बाद पूर्वभव की भाभी, जो सियारिन बन गई थी, वह अपने बच्चे सहित आई और उन्होंने मुनिराज का शरीर खाना प्रारंभ कर दिया। तीन दिन तक अखंड उपसर्ग चला। धन्य है वह जीव! जिसे सरसों का दाना भी चुभता था, वह यह सब सहता रहा। यह आत्मा के भावों का ही परिणाम है। यह सब माहात्म्य आत्मा की भीतरी विशुद्धि का है। आत्मानुभूति के समय बाहर भले ही कुछ होता रहे, अंदर तो आनंद-ही-आनंद बरसता है। मैं एक हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ और अरूपी हूँ, अन्य परपदार्थों से मेरा कोई संबंध नहीं। कैसी परिणामों की निर्मलता है! मुनि सुकुमाल ने सवार्थसिद्धि की प्राप्ति की। अल्पकाल में वे मोक्ष-सुख प्राप्त करेंगे। हम भी ऐसा कर सकते हैं। एकाग्रता तथा ध्यान के द्वारा कषायों की शुद्धि कर शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति संभव है। आचार्य कहते हैं - मनमन्दिर में ध्यान लगाकर, कभी न देखा मन में। अन्तर्मुख हो निज में निज को, स्वयं देख लो मन में। तुम अनादि परिपूर्ण द्रव्य हो, गुण अनन्त के हो तुम स्वामी। सर्व सिद्धियों के धारक तुम, चेतन चिदानन्द शिव ग्रामी। उर अन्तर को शुद्ध बनाकर, समताभाव हृदय में धर लो। सम्यक् ज्ञान जगाकर मन में, निज में निज का दर्शन कर लो। 16/ध्यान दर्पण . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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