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________________ भवान्तर-गमन के संस्कार कार्मण-शरीर में संचित रहते हैं। इस दृष्टि से यह संस्कार-शरीर भी है। आत्मा का सबसे निकट संपर्क कार्मण-शरीर से है। आत्मा के चैतन्य और वीर्य सर्वप्रथम इसी में संक्रान्त होते हैं। तेजस्-शरीर उन्हें स्थूल शरीर तक पहुँचाता है और स्थूल शरीर के द्वारा वे अभिव्यक्त होते हैं। इस प्रकार आत्मा के चैतन्य और वीर्य कार्मण-शरीर, तेजस्-शरीर और स्थूल शरीर की क्रमिक प्रक्रिया से बाह्यजगत् तक पहुँचते हैं। बाह्यजगत् का प्रभाव सर्वप्रथम स्थूल शरीर पर होता है। उसे तेजस्-शरीर, कार्मण-शरीर तक ले जाता है और कार्मण-शरीर के माध्यम से वह आत्मा तक पहुँचता है। इस प्रकार तेजस्–शरीर प्रेषण के माध्यम का काम करता है। योग के आचार्यों ने तेजोमय आत्मा की परिकल्पना की है। आत्मा की तेजोमयता की परिकल्पना का निमित्त यह तेजस्-शरीर ही है। कार्मण और तेजस्–शरीर सूक्ष्म शरीर हैं, इसलिए उनके अवयव नहीं हैं, वे अवयवविहीन शरीर हैं। वे स्थूल शरीर के अवयवों में परिव्याप्त हैं। साधारणतया, समूचे शरीर में परिव्याप्त हैं, किन्तु शरीर के कुछ भागों में वे विशेष रूप से केन्द्रित हैं। ये केन्द्रित भाग चैतन्य कि अभिव्यक्ति के मुख्य केन्द्र हैं । पिण्डस्थ-ध्यान में इन्हीं केन्द्रों पर मन को एकाग्र किया जाता है। चैतन्य की अभिव्यक्ति के १० शारीरिक केंद्र हैं। (१) सिर (२) 5 (३) तालु (४) ललाट (५) मुँह (६) कान (७) नासाग्र (८) कण्ठ (९) हृदय (१०) नाभि। इन केन्द्रों पर ध्यान करने से मन की एकाग्रता सरलता से सधती है, आंतरिक ज्ञान विकसित होता है। पिण्डस्थ स्थान में चक्रों का भी आलम्बन लिया जाता है। चित्त को किसी निश्चित ध्यान दर्पण/107 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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