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संयोग है। प्राणशक्ति, भाषा, इन्द्रिय और चिंतन-ये न चेतन के लक्षण हैं और न अचेतन के, किन्तु चेतन और अचेतन समन्वित अवस्था के लक्षण हैं। आत्मा की ज्ञानात्मक शक्ति और शरीर का पौद्गलिक–सहयोग–ये दोनों मिलकर शरीर और आत्मा के अस्तित्व को प्रकट करते हैं।
शरीर
औदारिक
वैक्रयिक
आहारक
तेजस
कार्मण
शरीर के पाँच प्रकार हैं(१) औदारिक- यह अस्थि-माँसमय स्थूल शरीर है। (२) वैक्रयिक- यह अस्थि-माँसरहित स्थूल शरीर है। यह
शरीर देवगति तथा नरकगति जीव को प्राप्त होता है। (३) आहारक- यह योगज शरीर है। इसे एक स्थान से दूसरे
स्थान में प्रेषित किया जा सकता है। यह सूक्ष्म शरीर है।
यह मात्र मुनियों को ही होता है। (४) तेजस्- यह विद्युत्-शरीर है। यह तेज, कांति देता है। (५) कार्मण- यह मूल शरीर या संस्कार-शरीर है। यह
संसार एवं कर्मों के उत्पन्न होने का मूल कारण है।
जब चैतन्य का विस्तार बाह्य-जगत् की ओर होता है, तब उसकी गति सूक्ष्म से स्थूल की ओर होती है और जब अन्तर–जगत् की ओर होता है, तब स्थूल से सूक्ष्मता की ओर होती है। स्थूल शरीर भवान्तरगामी नहीं होते हैं। उनमें भी
106/ध्यान दर्पण
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