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________________ ५. उपायविचय - धर्मध्यान में पुण्यरूप योग प्रकृतियों को अपने अधीन करना या ये पुण्य प्रकृतियाँ मेरे अधीन कैसे हो सकती हैं, इस प्रकार के संकल्पों की संतति को (विचारधाराओं को) उपाय–विचय-धर्मध्यान कहा गया है। ६. जीवविचय - द्रव्यदृष्टि से जीव अनादिनिधन है। पर्यायदृष्टि से जीव सनिधन है, अंसख्यातप्रदेशी है, ज्ञान और दर्शनरूप उपयोग-लक्षण वाला है, शरीररूपी अचेतन उपकरण से युक्त है और अपने द्वारा किए गए कर्म के फल को भोगता है। इस रूप से जीव का जो ध्यान किया जाता है, वह जीवविचय-धर्मध्यान है। ७. अजीवविचय धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल-इन पाँच अचेतन द्रव्यों के स्वभाव का बार-बार चिंतन करना अजीवविजयधर्मध्यान है। ८. विरागविचय शरीर अपवित्र है। भोग किंपाक-फल के समान सुन्दर और उपभोग के पश्चात् दुःखदायी हैं। संसार, शरीर और भोगों से सताए मानव को सुख-शांति नहीं मिलती। वस्तुतः, अशुचि भावनाओं का बार-बार चिंतन करते हुए आत्मीय वैराग्य को दृढ़ व स्थिर बनाना विरागविचय-धर्मध्यान है। ९. भवविचय - चारों गतियों में भ्रमण करने वाले इन जीवों को मरने के बाद जो पर्याय होती है, वह भव है और वह दुःखरूप है। इस प्रकार की निरंतर वैकल्पिक संतति को भवविचय-धर्मध्यान कहा गया है। 104/ध्यान दर्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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