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२. अपायविचय
कर्मों के नाश के उपाय का विचार करना अपायविचयधर्मध्यान है। इसका मुख्य साधन अप्रमत्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की त्रिकुटि अथवा रत्नत्रय है। इसमें कर्मानव को रोकने के उपायों का चिंतन किया जाता है, अर्थात् नए कर्म किसी उपाय से न बँधे व जो बंध गए हैं, वे कैसे छूटे-इसका विचार इस धर्मध्यान में किया जाता है। ३. विपाकविचय
कर्मों के फल का उदय विपाक कहा जाता है। इस ध्यान में साधक यह विचार करता है कि अपने पूर्व कर्म ही उदय में आने पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय पाकर ज्ञान, दर्शन को आवरित कर अथवा अपरिष्कृत कर नाना प्रकार के अशुभ व शुभ फल देते हैं। इस ध्यान से चित्त शुद्ध होता है और जीव कर्मों के नाश का उपाय करने की दिशा प्राप्त करता है। ४. संस्थानविचय
इस ध्यान में ऊर्ध्व, मध्य व अधोलोक का चिंतन किया जाता है। किन-किन कर्मों के उदय से किन-किन लोकों, पर्यायों, परिस्थितियों आदि की प्राप्ति होती है और उनसे छूटने का क्या उपाय है, आदि बातों का विचार इस ध्यान की परिधि अथवा सीमा में आता है।
__ अध्यात्म की अपेक्षा से धर्मध्यान के भेद निम्न हैं(१) अपायविचय (२) उपायविचय (३) जीवविचय (४) अजीवविचय (५) विपाकविचय (६) विरागविचय (७) भवविचय (८) संस्थानविचय (९) आज्ञाविचय (१०) हेतुविचय
आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय का कथन हो चुका है।
ध्यान दर्पण/103
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