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गुणों में अभिरुचि होती है, दुःखी जीवों के प्रति करुणा, सेवा की भावना जागती है, विपत्तियों अथवा विरोधियों के प्रति माध्यस्थता, उपदेश अथवा रागद्वेषरहित उदासीनता की भावना होती है। धर्मध्यान से उद्वेगरहित शांति की उपलब्धि होती है और जीव आत्मलाभ की दिशा में आगे बढ़ने लगता है, जिससे उसे आत्म-आनंद की दशा प्राप्त हो जाती है। यहीं से जीवन–मुक्ति, ब्रह्मस्थिति और समाधि का आरंभ होता है। धर्मध्यान वाला जीव विषयों के मोह से छूटकर अतीन्द्रिय सुख को प्राप्त कर लेता है। धर्मध्यान के भेद
धर्मध्यान के आगम की दृष्टि से चार भेद व अध्यात्म की दृष्टि से दस भेद हैं।
विवेकपूर्वक विचार करना विचय कहलाता है। विचय शब्द विचार करने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। आज्ञा आदि के विषय में विवेकपूर्वक समझकर एकाग्रता से चिन्तन करना धर्म ध्यान है। इसके चार भेद इस प्रकार हैं
(१) आज्ञाविचय (२) अपायविचय (३) विपाकविचय और (४) संस्थानविचय। १. आज्ञाविचय -
इसमें सर्वज्ञ आप्त तीर्थंकरों की आज्ञा अथवा द्वादशांग श्रुत-ज्ञान के द्वारा पदार्थों के सही स्वरूप का सम्यक् प्रकार से चिंतन किया जाता है। मति की दुर्बलता से, अध्यात्म-विद्या के जानकार आचार्यों का विरह होने से, ज्ञेय की गहनता होने से, ज्ञान को आवरण करने वाले कर्म की तीव्रता होने से, हेतु, युक्ति व तर्क तथा उदाहरण संभव न होने से “सर्वज्ञ प्रतिपादित मत सत्य है''- ऐसा चिंतन करने को आज्ञाविचय-धर्मध्यान कहा है।
102/ध्यान दर्पण
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