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________________ उसे चौर्यानन्द नामक अप्रशस्त तीसरा रौद्रध्यान कहते हैं। यह चोरी में, चोरी करने में, चोरी करवाने में तथा चोरी का सामान खरीदने वाले व्यक्ति को होता है। ४. परिग्रह-संरक्षणानन्द रौद्रध्यान - __ यह चौथा रौद्रध्यान सबका मुखिया है। विषयों या काम्य अथवा प्रिय वस्तुओं को जुटाने एवं उनकी रक्षा करने में व परिग्रह की लिप्सा में आनन्द मानने को परिग्रह संरक्षणानन्द नामक रौद्रध्यान कहते हैं। रौद्रध्यान के होने से जीवों के परिणामों की सहजता मिटकर रौद्रता आती है, जिसके कारण वह पाप और अनैतिकता में डूब जाता है और परिणामत: इस जन्म और परवर्ती जन्मों में दुःख उठाता है। अप्रशस्त-ध्यान का गीता में मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया गया है। उसके अनुसार विषयों का ध्यान करने से क्रमश: राग, कामना, क्रोध, मोह, स्मृति का नाश, बुद्धिनाश और सर्वनाश तक हो जाता है। कषाय, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि से आर्त और रौद्रध्यान होते हैं। इनसे जीवन में लांछित, अपमानित और उद्विग्न होना पड़ता है। मनुष्य इनके प्रभाव से सदा शंकित और भयभीत बना रहता है। दुश्चिन्ताओं के कारण उसे रात में नींद नहीं आती और शरीर में नाना प्रकार के रोग लगकर उसे गलाते-जलाते रहते हैं, इसलिए इन दुानों का निषेध किया गया है। (ब) प्रशस्तध्यान - __ प्रशस्तध्यान के भी दो भेद हैं – धर्मध्यान और शुक्लध्यान । ये दोनों संसार की संतति को अल्प कर, स्वर्ग व मोक्ष के हेतु हैं। धर्मध्यान के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाएँ आवश्यक हैं। इनसे जीवों में परस्पर मित्रता होती है, ध्यान दर्पण/101 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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