________________
अप्रशस्त-ध्यान आर्त्तध्यान- पीड़ा, दुःख जिससे उत्पन्न हो, वह आर्त्तध्यान है। जिस प्रकार दिशाशूल होने से पुरुष को उन्मत्तता होती है, उसी प्रकार यह ध्यान मिथ्या, वासना एवं कुविद्या के संस्कार से उत्पन्न होता है। १. अनिष्ट-संयोजक आर्तध्यान
पहला आर्त्तध्यान अनिष्ट पदार्थों के संयोग से होता है। अनिच्छित पीड़ाकारक वस्तु के संयोग होने से उस कष्टदायक पदार्थ को दूर करने, परिहार करने के लिए मन में जो आकुलता होती है, वह अनिष्ट संयोजक नामक अप्रशस्त पहला आर्त्तध्यान है। २. इष्ट-वियोजक आर्त्तध्यान
इष्ट पदार्थ के वियोग होने पर उस निमित्त से वस्तु को पाने के लिए जो एकाग्र चित्तवृत्ति होती है, वह इष्ट-वियोजक नामक अप्रशस्त दूसरा आर्त्तध्यान है। ३. पीड़ा-चिंतन आर्तध्यान - ___ शारीरिक-रोग, वेदना से उत्पन्न होने वाला वह ध्यान जिसमें रोग होने पर उसे दूर करने की बार-बार इच्छा हो, आकुलता हो, वह पीड़ा-चिंतन नामक अप्रशस्त तीसरा आर्तध्यान है। ४. निदान-आर्तध्यान -
भविष्य में इच्छित भोगों की प्राप्ति की कामना से पंचेन्द्रिय विषय-भोगों की अभिलाषा होना निदान नामक अप्रशस्त चौथा आर्त्तध्यान है। आर्त्तध्यान आत्मा के समत्व गुणों का नाश कर जीव को अशांत कर देता है। रौद्रध्यान
रुद्र का अर्थ क्रूर आशय है। हिंसा आदि पापकार्य करके
ध्यान दर्पण/99
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org