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________________ वातावरण महाराज बोले कि हमें अभिनंदन ग्रंथ वगैरह कुछ नहीं चाहिए। उत्सव भी नहीं चाहिए। अब हमारी जीवन घड़ी में बारह घंटा पूर्ण होने में थोड़ा समय शेष है। सूरज डूबने को थोड़ा समय बाकी है, अब हमें चुपचाप आत्मा का ध्यान करना है। हमें और कोई चीज नहीं चाहिए। मैने कहा-महाराज आप अपने समय पूर्ण होने की बात कहते हैं, तो क्या आपको इस विषय में भान सा हो गया है। महाराज बोले कि अब हम अस्सी वर्ष के हो गये हैं, अब और कितने दिन जीवित रहेंगे ? इसलिये हमें अपनी कीर्ति आदि की झंझट नहीं चाहिए। सम्मान नहीं चाहिए। तुम हमारी स्तुति-प्रशंसा में ग्रंथ मत लिखना। ___ मैं बोला कि महाराज ! यदि ग्रंथ लिख लिया, तो इस दोष का प्रायश्चित आपके चरणों में आकर ले लूंगा । आपके जीवन का परिचय पाकर, जो जगत को सुख, शांति तथा प्रकाश मिलेगा, वह आपके दृष्टि पथ में नहीं है। आपकी महत्ता दूसरे अनुभव करते हैं। महाराज बोले कि हम कह चुके, हमें कोई कीर्ति, मान, यश नहीं चाहिए। मेरे पास उन महान् आत्मा के आगे और प्रार्थना करने को शब्द शेष नहीं थे। मैं असमंजस में पड़ गया। सुशील कुमार ने भी अनुज्ञा के लिये अभ्यर्थनाएँ की, किन्तु इन निष्प्रह वीतराग मूर्ति को यह राग की बात न अँची। . हमारा बंबई को प्रस्थान करना आवश्यक था, अत: हमने चुपचाप गुरु चरणों को प्रणाम किया और उनका अनंत आशीर्वाद प्राप्त कर वहाँ से चल दिये। मार्ग में विचार में निमग्न रहे आये। अब क्या किया जाय ? एक यात्री बंधु के पास एक धार्मिक पुस्तक थी, उसे देखने को ले लिया, उसमें लिखा था कि बड़ों की आज्ञा भी कभी-कभी नहीं मानने में कल्याण होता है। मैंने ध्यान से उस अंश को पढ़ा, लिखा था कि तुम पूज्य पुरुषों की वैयावृत्य कर रहे हो और वे तुम्हारे कष्ट का विचार कर कहे कि अब वैयावृत्ति न करो, इस स्थिति में यदि तुम सेवा करके उनके कष्टों को दूर करते हो, तो तुम शब्दशः उनके आदेश का पालन नहीं करते हो, किन्तु वास्तव में तुम उनकी सेवा ही कर रहे हो, इसका श्रेय तुमको मिलेगा ही। तुम्हे अलाभ नहीं होगा। ___ इसे पढ़ते ही मन में विचार आया कि लोकोत्तर श्रेष्ठ आत्मा की आज्ञा का उल्लंघन भी न हो और कार्य भी बन जाए, ऐसा कोई मध्यवर्ती मार्ग मिल जाए, तो बड़ा सुन्दर होगा। आचार्यश्री यथार्थ में असाधारण आध्यात्मिक विभूति हैं। उनका यश-अपयश की संकीर्णता से ऊपर उठ जाना, उनके आत्म विकास और विशुद्ध दृष्टि का द्योतक है । बड़े से बड़ा व्यक्ति भी इस यश लिप्सा से नहीं बच सका है। इसी से प्रसिद्ध कवि मिल्टन ने कीर्ति की कामना को सत्पुरुष की अंतिम दुर्बलता कहा है। (Fame is the last infirmity of Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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