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चारित्र चक्रवर्ती
का साहस हमसे नहीं हो सकता है, कारण उनका उज्ज्वल जीवन स्वयं सबको प्रकाश प्रदान करता है । वे प्रकाशक रहे हैं, दूसरों के द्वारा प्रकाश्य नहीं । उनके असाधारण जीवन की प्राय: सभी बातें महत्वास्पद होंगी, किन्तु उनके चारित्र की प्रामाणिक व पूर्ण सामग्री को प्राप्त करना असंभव सदृश हो गया था ।
आचार्यश्री की स्वयं की अवस्था अषाढ़ कृष्ण षष्ठी को अस्सी वर्ष की हो गई, अतः उनके बाल्य तथा युवा काल की कथा बताने वाले साथी अब कैसे मिल सकते हैं ? वे स्वयं महानतत्त्वज्ञ मुनि शिरोमणि है, अतः उनसे सामग्री प्राप्त की आशा निराशा में परिणत हो गई। लोकोत्तर - व्यक्तित्व
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जब सन् १९५१ अक्टूबर में बारामती के उद्यान में हमने अपने अनुज प्रोफेसर सुशील कुमार दिवाकर के साथ बड़ी विनय के साथ, उनसे कुछ जीवन गाथा जानने की प्रार्थना की, तब उत्तर मिला कि हम संसार के साधुओं में सबसे छोटे हैं, हमारा लास्ट नंबर है, उससे तुम क्या लाभ ले सकोगे ? हमारे जीवन में कुछ भी महत्व की बात नहीं है।
हमने कहा कि महाराज ! आपका साधुओं में प्रथम स्थान है या अंतिम, यह बात देखने वाले ही जान सकते हैं। संसार जानता है कि आपका फर्स्ट नंबर है ।
महाराज बोले कि लोग हमें क्या जानें ? हम अपने को जानते हैं कि तीन कम नव कोटि मुनियों में हमारा अंतिम नंबर है।
मैंने कहा कि अच्छा ! आपकी दृष्टि में वे साधुगण हैं। उनमें से आप हैं, तब तो आपके जीवन की बातें हम सबके लिये बड़ी कल्याणप्रद तथा बोधजनक होंगी ।
महाराज बोले कि बड़े-बड़े ऋद्धिधारी मुनियों तथा महापुरुषों के जीवन चरित्र का पता नहीं है, तब हमारे चरित्र से क्या होगा ? तुम हमें सबसे छोटा समझो। इतना हमने कह दिया, अधिक नहीं कहना है ।
आदेश
कुछ क्षण पश्चात् वे बोल उठे कि तुम्हारे लिये हमारा आदेश है कि तुम हमारा जीवन-चरित्र मत लिखो ।
मैं बोला कि महाराज ! यह तो आपकी बड़ी कड़ी आज्ञा है । मैं अपने गुरु के गौरव जगत को परिचित कराकर गुरु की सेवा तथा लोकहित करना चाहता हूँ । उस विषय में आप क्यों प्रतिबंध उपस्थित करते हैं? आपकी अस्सी वर्ष की अवस्था पूर्ण होने को है । धार्मिक समाज उत्सव मनाकर धर्म प्रभावना करना चाहती है। उसकी इच्छानुसार एक अभिनंदन ग्रंथ भी प्रकाशित करने की आयोजना होने को है और वह भार मेरे ऊपर रखा गया है।
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