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________________ वातावरण मोह महा रिपु जानके, छाँड्यो सब घर बार । होय दिगंबर वन बसै, आतम शुद्ध विचार ॥ २ ॥ वे मुनियों को वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे रहने वाले ही सोचते हैं और उनकी दृष्टि में यह बात नहीं है कि आज के हीन संहनन में शरीर ऐसी तपश्चर्या को सहन भी कर सकेगा या नहीं ? इसलिये वे कहते हैं कि : पावस रैन डरावनी, बरसै जल धर धार । तरु तल निवसें तब यती, वाजे झंझा वार ॥ ८ ॥ वे गुरु चरण जहाँ धरे जग में तीरथ जेह । सो रज मम मस्तक चढ़ों, भूधर' मांगे येह ॥ १४ ।। पंचम काल में मुनियों की अल्प तपस्या द्वारा महान् निर्जरा ___ इन विद्वानों की दृष्टि में आगम का यह कथन नहीं आया कि पंचम काल में संहनन हीन होने के कारण मुनिराज पुर, नगर तथा ग्राम में भी निवास करते हैं। ऐसी आगम की आज्ञा इन धर्मात्मा विद्वानों के ध्यान में आयी होती तो वे अपनी रचना में इस बात को प्रतिबिंबित करने से न चूकते । आचार्य देवसेन ने "भावसंग्रह" में लिखा है- "इस पंचम काल के प्रभाव से तथा हीन संहनन होने के कारण इस काल में मुनिराज पुर, नगर, ग्राम, में निवास करने लगे । अत्यन्त हीन संहनन, शारीरिक हीन शक्ति, दुःषमा काल तथा चित्त की अस्थिरता होते हुए भी धीर पुरुष महाव्रत के भार को धारण करने में उत्साहित होते है"। जो व्यक्ति यह सोचता हो कि आज चतुर्थ कालीन मुनियों के समान कठोर तपस्वी जीवन व्यतीत करना अशक्य होने के कारण कर्मों की निर्जरा कम होती होगी, उसे आचार्य देवसेन के ये शब्द बड़े ध्यान से पढ़ना चाहिये-“पहले हजार वर्ष तप करने पर जितने कर्मो का नाश होता था आज हीन संहनन में एक वर्ष के तप द्वारा कर्मों का नाश होता है।"२ इसका कारण यह है कि हीन संहनन में तपस्या करने के लिये अलौकिक मनोबल लगता है। आज की शारीरिक स्थिति अद्भुत है। यदि एक दिन आहार नहीं मिला तो लोगों का मुख कमल मुरझा संहणणस्स गुणेण य दुस्समकालस्स तवपहावेण । पुर-णयर-गामवासी थाविरे कप्पे ठिया जाया ।। १२७ ।। संहणणं अइणिच्चं कालो सो दुस्समो मणो चवलो। तहविहु धीरा पुरिसा महन्वय-भरधरण उच्छहिया ॥ १३० ॥ वरिस-सहस्सेण पुरा जं कम्मं हणइ तेण काएण । तं संपहि वरिसेण हु णिज्जरयइ हीण संहणणे ॥ १३१ ॥ -भावसंग्रह www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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